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सूत्रकृत-२/७/-1८०५
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है; वे जब आयु को छोड़ देते हैं और पुनः श्रावक द्वारा गृहीत उसी मर्यादा के अन्दर वाले प्रदेश में स्थावर प्राणियों में उत्पन्न होते हैं, जिनको श्रमणोपासक ने अर्थदण्ड का त्याग नहीं किया है, किन्तु उन्हें अनर्थ दण्ड करने का त्याग किया है । अतः उन को श्रमणोपासक अर्थ वश दण्ड देता है, अनर्थ दण्ड नहीं देता । वे प्राणी भी कहलाते हैं, त्रस भी कहलाते हैं । वे चिरस्थितिक भी होते हैं । अतः श्रावक का त्रसप्राणियों की हिंसा का और स्थावरप्राणियों की निरर्थक हिंसा का प्रत्याख्यान सविषय एवं सार्थक होते हुए भी उसे निर्विषय बताना न्यायोचित नही है ।
(३)-(श्रमणोपासक द्वारा गृहीत मर्यादा के) अन्दर के प्रदेश में जो त्रस प्राणी हैं, जिनको श्रमणोपासक ने व्रतग्रहण के समय से लेकर मरणपर्यन्त दण्ड देने का त्याग किया है; वे मृत्यु का समय आने पर अपनी आयु को छोड़ देते हैं, वहाँ से देह छोड़ कर वे निर्धारितमर्यादा के बाहर के प्रदेश में, जो त्रस और स्थावर प्राणी हैं, उनके उत्पन्न होते हैं, जिनमें से त्रस प्राणियों को तो श्रमणोपासक ने व्रतग्रहण के समय से लेकर आमरणान्त दण्ड देने का
और स्थावर प्राणियों को निरर्थक दण्ड देने का त्याग किया होता है । अतः उन प्राणियों के सम्बन्ध में श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है । वे प्राणी भी कहलाते हैं यावत् चिरकाल की स्थिति वाले भी होते हैं । अतः श्रावकों के प्रत्याख्यान को निर्विषय कहना न्यायपूर्ण नहीं है ।
(४) (श्रमणोपासक द्वारा निर्धारित भूमि के) अन्दर वाले प्रदेश में जो स्थावर प्राणी हैं, श्रमणोपासक ने जिनको प्रयोजनवश दण्ड देने का त्याग नहीं किया है, किन्तु बिना प्रयोजन के दण्ड देने का त्याग किया है; वे स्थावरप्राणी वहाँ से अपनी आयु को छोड़ देते हैं, आयु छोड़ कर श्रमणोपासक द्वारा स्वीकृत मर्यादा के अन्दर के प्रदेश में जो त्रस प्राणी हैं, उन में उत्पन्न होते हैं । तब उन प्राणियों के विषय में किया हुआ श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है । वे प्राणी भी कहलाते हैं, त्रस भी; यावत् चिरस्थितिक भी होते हैं । अतः त्रस या स्थावर प्राणियों का अभाव मान कर श्रमणोपासक के प्रत्याख्यान को निर्विषय बताना न्यायसंगत नहीं है ।
(५) श्रावक द्वारा स्वीकृत मर्यादा के अन्दर के क्षेत्र में जो स्थावर प्राणी हैं, जिनको सार्थक दण्ड देने का त्याग श्रमणोपासक नहीं करता अपितु वह उन्हें निरर्थक दण्ड देने का त्याग करता है । वे प्राणी आयुष्य पूर्ण होने पर उस शरीर को छोड़ देते हैं, उस शरीर को छोड़कर श्रमणोपासक द्वारा गृहीत मर्यादित भूमि के अन्दर ही जो स्थावर प्राणी हैं, जिनको श्रमणोपासक ने सार्थक दण्ड देना नहीं छोड़ा है, किन्तु निरर्थक दण्ड देने का त्याग किया है, उनमें उत्पन्न होता है । अतः इन प्राणियों के सम्बन्ध में किया हुआ श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है । वे प्राणी भी हैं, यहाँ तक कि चिरकाल की स्थिति वाले भी हैं । अतः श्रमणोपासक के प्रत्याख्यान को निर्विषय कहना न्याययुक्त नहीं है ।
(६) श्रावक द्वारा स्वीकृत मर्यादाभूमि के अन्दर जो स्थावर प्राणी हैं, श्रमणोपासक ने जिन की सार्थक हिंसा का त्याग नहीं किया, किन्तु निरर्थक हिंसा का त्याग किया है, वे स्थावर प्राणी वहां से आयुष्यक्षय होने पर शरीर छोड़ कर श्रावक द्वारा निर्धारित मर्यादाभूमि के बाहर जो त्रस और स्थावर प्राणी हैं, जिनको दण्ड देने का श्रमणोपासक ने व्रतग्रहण के समय से