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________________ २५० आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद सुप्रत्याख्यान होता है । इसलिए श्रमणोपासक के प्रत्याख्यान को निर्विषय कहना न्यायोचित नहीं है । - भगवान् श्रीगौतमस्वामी ने कहा-इस जगत् में बहुत-से प्राणी समायुष्क होते हैं, जिनको दण्ड देने का त्याग श्रमणोपासक ने व्रतग्रहण करने के दिन से लेकर मृत्युपर्यन्त किया है । वे प्राणी स्वयमेव मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं । मर कर वे परलोकमें जाते हैं । वे प्राणी भी कहलाते हैं, त्रस भी कहलाते हैं और वे महाकाय भी होते हैं और समायुष्क भी । तथा ये प्राणी संख्या में बहुत होते हैं, इन प्राणियों के विषय में श्रमणोपासक का अहिंसाविषयक प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है । अतः श्रमणोपासक के प्रत्याख्यान को निर्विषयक बताना न्यायसंगत नहीं है । भगवान् गौतमस्वामी ने कहा-कई प्राणी अल्पायु होते हैं । श्रमणोपासक व्रतग्रहण करने के दिन से लेकर मृत्युपर्यत जिनको दण्ड देने का त्याग करता है । वे पहले ही मृत्यु को प्राप्त कर लेते हैं । मर कर वे परलोक में जाते हैं । वे प्राणी भी कहलाते हैं, त्रस भी कहलाते हैं, महाकाय भी होते हैं और अल्पायु भी । जिन प्राणियों के विषय में श्रमणोपासक अहिंसाविषयक प्रत्याख्यान करता है, वे संखया में बहुत हैं, जिन प्राणियों के विषय में श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान नहीं होता, वे संख्या में अल्प हैं । इस प्रकार श्रमणोपासक महान् त्रसकाय की हिंसा से निवृत्त हैं, फिर भी, आप लोक उसके प्रत्याख्यान को निर्विषय बताते हैं, अतः आपका यह मन्तव्य न्यायसंगत नहीं है । भगवान् गौतमस्वामी ने कहा-कई श्रमणोपासक ऐसे होते हैं, जो इस प्रकार प्रतिज्ञाबद्ध होते हैं हम मुण्डित होकर घरबार छोड़ कर अनगार धर्म में प्रव्रजित होने में समर्थ नहीं हैं, न हम चतुदर्शी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा के दिन प्रतिपूर्ण पौषधव्रत का विधि अनुसार पालन करने में समर्थ हैं, और न ही हम अन्तिम समय में अपश्चिममारणान्तिक संलेखना की आराधना करते हुए विचरण करने में समर्थ हैं । हम तो सामायिक एवं देशावकाशिक व्रतों को ग्रहण करेंगे, हम प्रतिदिन प्रातःकाल पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशा में गमनागमन की मर्यादा करके या देशावकाशिक मर्यादाओं को स्वीकार करके उस मर्यादा से बाहर के सर्वप्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों को दण्ड देना छोड़ देंगे । इस प्रकार हम समस्त प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों के क्षेमंकर होंगे । [८०५] (१) ऐसी स्थिति में (श्रमणोपासक के व्रतग्रहण के समय) स्वीकृत मर्यादा के (अन्दर) रहने वाले जो त्रस प्राणी हैं, जिनका उसने अपने व्रतग्रहण के समय से लेकर मृत्युपर्यन्त दण्ड देने का प्रत्याख्यान किया है, वे प्राणी अपनी आयु को छोड़कर श्रमणोपासक द्वारा गृहीत मर्यादा के अन्तर क्षेत्रों में उत्पन्न होते हैं, तब भी श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान उनमें सुप्रत्याख्यान होता है । वे श्रावक की दिशामर्यादा से अन्दर के क्षेत्र में पहले भी त्रस थे, बाद में भी मर्यादा के अन्दर के क्षेत्र में सरूप में उत्पन्न होते हैं इसलिए वे प्राणी भी कहलाते हैं, त्रस भी कहलाते हैं । ऐसी स्थिति में श्रमणोपासक के पूर्वोक्त प्रत्याख्यान को निर्विषय बताना कथमपि न्याययुक्त नहीं है । (२) श्रमणोपासक द्वारा गृहीत मर्यादा के अन्दर के प्रदेश में रहने वाले जो त्रस प्राणी हैं, जिनको दण्ड देना श्रमणोपासक ने व्रतग्रहण करने के समय से लेकर मरणपर्यन्त छोड़ दिया
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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