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सूत्रकृत-२/७/-/८०४
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वे काल का अवसर आने पर अपनी आयु का त्याग करते हैं, फिर वे अपने पुण्य कर्मों को साथ लेकर स्वर्ग आदि सुगति को प्राप्त करते हैं, वे प्राणी भी कहलाते हैं, त्रस भी कहलाते हैं, और महाकाय तथा चिरस्थितिक भी होते हैं । (उन्हें भी श्रमणोपासक दण्ड नहीं देता) अतः आपका यह कथन न्यायसंगत नहीं है कि त्रस के सर्वथा अभाव के कारण श्रमणोपासक का उक्त व्रत-प्रत्याख्यान निर्विषय हो जाता है ।।
भगवान् श्री गौतमस्वामी ने कहा-'इस जगत् में ऐसे भी मानव हैं, जो अल्प इच्छा वाले, अल्प आरम्भ और परिग्रह वाले, धार्मिक, और धर्मानुसारी अथवा धर्माचरण की अनुज्ञा देने वाले होते हैं, वे धर्म से ही अपनी जीविका चलाते हैं, धर्माचरण ही उनका व्रत होता है, वे धर्म को ही अपना इष्ट मानते हैं, धर्म करके प्रसन्नता अनुभव करते हैं, वे प्राणातिपात से लेकर परिग्रह तक, एक देश से विरत होते हैं, और एक देश से विरत नहीं होते, इन अणुव्रती श्रमणापासकों को दण्ड देने का प्रत्याख्यान श्रमणोपासक ने व्रतग्रहण करने के दिन से मरणपर्यन्त किया होता है । वे काल का अवसर आने पर अपनी आयु को छोड़ते हैं और अपने पुण्यकर्मों को साथ लेकर सद्गति को प्राप्त करते हैं । वे प्राणी भी कहलाते हैं, त्रस और महाकाय भी कहलाते हैं, तथा चिरस्थितिक भी होते हैं । अतः श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान त्रसजीवों की इतनी अधिक संख्या होने से निर्विषय नहीं हैं, आपके द्वारा श्रमणोपासक के प्रत्याख्यान को निर्विषय बताना न्यायसंगत नहीं है ।
भगवान् श्री गौतम ने फिर कहा-“इस विश्व में कई मनुष्य ऐसे भी होते हैं, जो आरण्यक होते हैं, आवसथिक होते हैं, ग्राम में जाकर किसी के निमंत्रण से भोजन करते हैं, कोई किसी गुप्त रहस्य के ज्ञाता होते हैं, अथवा किसी एकान्त स्थान में रह कर साधना करते हैं । श्रमणोपासक ऐसे आरण्यक आदि को दण्ड देने का त्याग, व्रतग्रहण करने के दिन से लेकर मरणपर्यन्त करता है । वे न तो संयमी होते हैं और न ही समस्त सावध कर्मों से निवृत । वे प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों की हिंसा से विरत नहीं होते । वे अपने मन से कल्पना करके लोगों को सच्ची-झूठी बात इस प्रकार कहते हैं-'मुझे नहीं मारना चाहिए, दूसरों को मारना चाहिए; हमें आज्ञा नहीं देनी चाहिए, परन्तु दूसरे प्राणियों को आज्ञा देनी चाहिए; हमें दास आदि बना कर नहीं रखना चाहिए, दूसरों को रखना चाहिए, इत्यादि ।' इस प्रकार का उपदेश देने वाले ये लोग मृत्यु का अवसर आने पर मृत्यु प्राप्त करके किसी असुरसंज्ञकनिकाय में किल्विषी देव के रूप उत्पन्न होते हैं । अथवा वे यहाँ से शरीर छोड़ कर या तो बकरे की तरह मूक रूप में उत्पन्न होते हैं, या वे तामस जीव के रूप में नरकगति में उत्पन्न होते हैं । अतः वे प्राणी भी कहलाते हैं और त्रस भी, वे महाकाय भी होते हैं और चिरस्थिति वाले भी । वे संख्या में भी बहुत होते हैं । इसलिए श्रमणोपासक का त्रसजीव को न मारने का प्रत्याख्यान निर्विषय है, आपका यह कथन न्याययुक्त नहीं है ।'
भगवान् श्री गौतम ने कहा-'इस संसार में बहुत-से प्राणी दीर्घायु होते हैं, जिनके विषय में श्रमणोपासक व्रतग्रहण करने के दिन से लेकर मरणपर्यन्त दण्ड का प्रत्याख्यान करता है । इन प्राणियों की मृत्यु पहले ही हो जाती है, और वे यहाँ से मर कर परलोक में जाते हैं । वे प्राणी भी कहलाते हैं, त्रस भी; एवं वे महाकाय और चिरस्थितिक होते हैं । वे प्राणी संख्या में भी बहुत होते हैं, इसलिए श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान इन प्राणियों की अपेक्षा से