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________________ सूत्रकृत-२/७/-/८०६ २५३ करता किन्तु उनके साथ अपनी परम मैत्री मानता है तथा ज्ञान प्राप्त करके, दर्शन प्राप्त कर एवं चारित्र पाकर पापकर्मों को न करने के लिए उद्यत हैं, वह निश्चय ही अपने परलोक की विशुद्धि के लिए उद्यत है । पश्चात् उदक पेढालपुत्र निर्ग्रन्थ भगवान् गौतम स्वामी को आदर दिये बिना ही जिस दिशा से आये थे, उसी दिशा में जाने के लिए तत्पर हो गये । भगवान् गौतम स्वामी ने कहा- " आयुष्मन् उदक ! ( श्रेष्ठ शिष्ट पुरुषों का परम्परागत आचार यह रहा कि ) जो व्यक्ति तथाभूत श्रमण या माहन से एक भी आर्य, धार्मिक सुवचन सुनकर उसे हृदयंगम करता है और अपनी सूक्ष्म प्रज्ञा से उसका भलीभांति निरीक्षण-परीक्षण करके (यह निश्चित कर लेता है) कि 'मुझे इस परमहितैषी पुरुष ने सर्वोत्तम योग, क्षेम रूप पद को उपलब्ध कराया है, ' तब वह उपकृत व्यक्ति भी उस ( उपकारी तथा योगक्षेमपद के उपदेशक) का आदर करता है, उसे अपना उपकारी मानता है, उसे वन्दन - नमस्कार करता है, उसका सत्कार–सम्मान करता है, यहाँ तक कि वह उसे कल्याणरूप, मंगलरूप, देव रूप और चैत्यरूप मान कर उसकी पर्युपासना करता है । तत्पश्चात् उदक निर्ग्रन्थ ने भगवान् गौतम से कहा - "भगवन् ! मैंने ये ( आप द्वारा निरूपित परमकल्याणकर योगक्षेमरूप) पद पहले कभी नहीं जाने थे, न ही सुने थे, न ही इन्हें समझे थे । मैंने हृदयंगम नहीं किये, न इन्हें कभी देखे सुने थे, इन पदों को मैंने स्मरण नहीं किया था, ये पद मेरे लिए अभी तक अज्ञात थे, इनकी व्याख्या मैंने नहीं सुनी थी, ये पद मेरे लिए गूढ़ थे, ये पद निःसंशय रूप से मेरे द्वारा ज्ञात या निर्धारित न थे, न ही गुरु द्वारा उद्धृत थे, न ही इन पदों के अर्थ की धारणा किसी से की थी । इन पदों में निहित अर्थ पर मैंने श्रद्धा नहीं की, प्रतीति नहीं की, और रुचि नहीं की । भंते ! इन पदों को मैंने अब जाना है, अभी आपसे सुना है, अभी समझा है, यहाँ तक कि अभी मैंने इन पदों में निहित अर्थ की धारणा की है या तथ्य निर्धारित किया है; अतएव अब मैं इन (पदों में निहित ) अर्थों में श्रद्धा करता हूं, प्रतीति करता हूँ, रुचि करता हूँ । यह बात वैसी ही है, जैसी आप कहते हैं ।” T तदनन्तर श्री भगवान् गौतम उदक पेढालपुत्र से इस प्रकार कहने लगे-आर्य उदक ! जैसा हम कहते हैं, ( वह सर्वज्ञवचन है अतः ) उस पर पूर्ण श्रद्धा रखो । आर्य ! उस पर प्रतीति रखो, आर्य ! वैसी ही रुचि करो ।) आर्य ! मैंने जैसा तुम्हें कहा है, वह वैसा ही ( सत्य - तथ्य रूप ) है । तत्पश्चात् उदकनिर्ग्रन्थ ने भगवान् गौतमस्वामी से कहा - "भंते ! अब तो यही इच्छा होती है कि मैं आपके समक्ष चातुर्याम धर्म का त्याग करके प्रतिक्रमणसहित पंच महाव्रतरूप धर्म आपके समक्ष स्वीकार करके विचरण करू ।” इसके बाद भगवान् गौतम उदक पेढालपुत्र को लेकर जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ पहुंचे । भगवान् के पास पहुँचते ही उनसे प्रभावित उदक निर्ग्रन्थ ने स्वेच्छा से जीवन परिवर्तन करने हेतु श्रमण भगवान् महावीर की तीन बार प्रदक्षिणा की, ऐसा करके फिर वन्दना की, नमस्कार किया, वन्दन - नमस्कार के पश्चात इस प्रकार कहा - "भगवन् ! मैं आपके समक्ष चातुर्यामरूप धर्म का त्याग कर प्रतिक्रमणसहित पंचमहाव्रत वाले धर्म को स्वीकार करके विचरण करना चाहता हूँ ।" इस पर भगवान् महावीर ने कहा “देवानुप्रिय उदक! तुम्हें जैसा सुख हो, वैसा करो, परन्तु ऐसे शुभकार्य में प्रतिबन्ध न करो ।”
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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