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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
[ ७६४] अथवा वह म्लेच्छ मनुष्य को खली समझ कर उसे शूल में बींध कर, अथवा कुमार को तुम्बा समझ कर पकाए तो वह प्राणिवध के पाप से लिप्त नहीं होता । [ ७६५ ] कोई पुरुष मनुष्य को या बालक को खली का पिण्ड मान कर उसे शूल में बांध कर आग में पकाए तो वह पवित्र है, बुद्धों के पारणे के योग्य है ।
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[ ७६६ ] जो पुरुष दो हजार स्नातक भिक्षुओं को प्रतिदिन भोजन कराता है, वह महान् पुराशि का उपार्जन करके महापराक्रमी आरोप्य नामक देव होता है ।
[ ७६७ ] ( आर्द्रक मुनि ने बौद्धभिक्षुओं को कहा ) आपके इस सिद्धान्त संयमियों के लिए अयोग्यरूप है । प्राणियों का घात करने पर भी पाप नहीं होता, जो ऐसा कहते, सुनते या मान लेते हैं; वह अबोधिलाभ का कारण है, और बुरा है ।
[ ७६८] 'ऊँची, नीची और तिरछी दिशाओं में त्रस और स्थावर जीवों के अस्तित्व का लिंग जान कर जीवहिंसा की आशंका से विवेकी पुरुष हिंसा से घृणा करता हुआ विचार कर बोले या कार्य करे तो उसे पाप-दोष कैसे हो सकता है ?"
[ ७६९] जो पुरुष खली के पिण्ड में पुरुषबुद्धि अथवा पुरुष में खली के पिण्ड की बुद्धि रखता है, वह अनार्य है । खली के पिण्ड में पुरुष की बुद्धि कैसे सम्भव है ? अतः आपके द्वारा कही हुई यह वाणी भी असत्य है ।
[७७०] जिस वचन के प्रयोग से जीव पापकर्म का उपार्जन करे, ऐसा वचन कदापि नहीं बोलना चाहिए । ( प्रव्रजितों के लिए) यह वचन गुणों का स्थान नहीं है । अतः दीक्षित व्यक्ति ऐसा निःसार वचन नहीं बोलता ।
[ ७७१] तुमने ही पदार्थों को उपलब्ध कर लिया है ! जीवों के कर्मफल का अच्छी तरह चिन्तन किया है !, तुम्हारा ही यश पूर्व समुद्र से लेकर पश्चिम समुद्र तक फैल गया है ! तुमने ही करतल में पदार्थ के समान इस जगत् को देख लिया है ।
[७७२] साधु जीवों की पीड़ा का सम्यक् चिन्तन करके आहारग्रहण करने की विधि से 'शुद्ध आहार स्वीकार करते हैं; वे कपट से जीविका करने वाले बन कर मायामय वचन नहीं बोलते । संयमीपुरुषों का यही धर्म है ।
[७७३] जो व्यक्ति प्रतिदिन दो हजार स्नातक भिक्षुओं को (पूर्वोक्त मांसपिण्ड का ) भोजन कराता है, वह असंयमी रक्त से रंगे हाथ वाला पुरुष इसी लोक में निन्दापात्र होता है । [ ७७४] आपके मत में बुद्धानुयायी जन एक बड़े स्थूल भेड़े को मार कर उसे बौद्ध भिक्षुओं के भोजन के उद्देश्य से कल्पित कर उस को नमक और तेल के साथ पकाते हैं, फिर पिप्पली आदि द्रव्यों से बघार कर तैयार करते हैं ।
[ ७७५] अनार्यों के-से स्वभाव वाले अनार्य, एवं रसों में गृद्ध वे अज्ञानी बौद्धभिक्षु कहते हैं कि बहुत-सा मांस खाते हुए भी हम लोग पापकर्म से लिप्त नहीं होते । [ ७७६ ] जो लोग इस प्रकार के मांस का सेवन करते हैं, तत्त्व को नहीं जानते हुए पाप का सेवन करते हैं । जो पुरुष कुशल हैं, वे ऐसे मांस खाने की इच्छा भी नहीं करते मांस भक्षण में दोष न होने का कथन भी मिथ्या है ।
[७७७] समस्त जीवों की दया के लिए, सावद्यदोष से दूर रहनेवाले तथा सावध की आशंका करने वाले, ज्ञातपुत्रीय ऋषिगम उद्दिष्ट भक्त का त्याग करते हैं ।