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सूत्रकृत-२/६/-/७५३
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सम्पन्न तथा कई सूत्रों और अर्थों के पूर्णरूप से निश्चयज्ञ होते हैं । अतः दूसरे अनगार मुझ से कोई प्रश्न न पूछ बैठें, इस प्रकार की आशंका करते हुए वे वहां नहीं जाते ।
[७५४] (आर्द्रक मुनि ने कहा) भगवान् महावीर अकामकारी नहीं हैं, और न ही वे बालकों की तरह कार्यकारी हैं । वे राजभय से भी धर्मोपदेश नहीं करते, फिर अन्य भय से करने की तो बात ही कहाँ ? भगवान् प्रश्न का उत्तर देते हैं और नहीं भी देते । वे इस जगत् में आर्य लोगों के लिए तथा अपने तीर्थंकर नामकर्म के क्षय के लिए धर्मोपदेश करते हैं ।
[७५५] सर्वज्ञ भगवान् महावीर वहाँ जाकर अथवा न जाकर समभाव से धर्मोपदेश करते हैं । परन्तु अनार्यलोग दर्शन भ्रष्ट होते हैं, इस लिए उनके पास नहीं जाते ।
[७५६] (गोशालक ने कहा-) जैसे लाभार्थी वणिक् क्रय-विक्रय से आय के हेतु संग करता है, यही उपमा श्रमण के लिए है; ये ही वितर्क मेरी बुद्धि में उठते हैं ।
[७५७] (आर्द्रक मुनि ने कहा) भगवान् महावीर नवीन कर्म (बन्ध) नहीं करते, अपितु वे पुराने कर्मों का क्षय करते हैं । (क्योकि) वे स्वयं यह कहते हैं कि प्राणी कुबुद्धि का त्याग करके ही मोक्ष को प्राप्त करता है । इसी दृष्टि से इसे ब्रह्म-पद कहा गया है । उसी मोक्ष के लाभार्थी भगवान् महावीर हैं, ऐसा मैं कहता हूँ।
- [७५८] (और हे गोशालक !) वणिक् प्राणिसमूह का आरम्भ करते हैं, तथा परिग्रह पर ममत्व भी रखते हैं, एवं वे ज्ञातिजनों के साथ ममत्वयुक्त संयोग नहीं छोड़ते हुए, आय के हेतु दूसरों से भी संग करते हैं ।
[७५९] वणिक् धन के अन्वेषक और मैथुन में गाढ़ आसक्त होते हैं, तथा वे भोजन की प्राप्ति के लिए इधर-उधर जाते रहते हैं । अतः हम तो ऐसे वणिकों को काम-भोगों में अत्यधिक आसक्त, प्रेम के रस में गृद्ध और अनार्य कहते हैं ।
[७६०] वणिक् आरम्भ और परिग्रह का व्युत्सर्ग नहीं करते, उन्हीं में निरन्तर बधे हुए रहते हैं और आत्मा को दण्ड देते रहते हैं । उनका वह उदय, जिससे आप उदय बता रहे हैं, वस्तुतः उदय नहीं है बल्कि वह चातुर्गतिक अनन्त संसार या दुःख के लिए होता है । वह उदय है ही नहीं, होता भी नहीं ।
[७६१] पूर्वोक्त सावध अनुष्ठान से वणिक् का जो उदय होता है) वह न तो एकान्तिक है और न आत्यन्तिक । विद्वान् लोग कहते हैं कि जो उदय इन दोनों गुणों से रहित है, उसमें कोई गुण नहीं है । किन्तु भगवान् महावीर को जो उदय प्राप्त है, वह आदि और अनन्त है । त्राता एवं ज्ञातवंशीय या समस्त वस्तुजात के ज्ञाता भगवान् महावीर इसी उदय का दूसरों को उपदेश करते हैं, या इसकी प्रशंसा करते हैं ।
[७६२] भगवान् प्राणियों की हिंसा से सर्वथा रहित हैं, तथा समस्त प्राणियों पर अनुकम्पा करते हैं । वे धर्म में सदैव स्थित हैं । ऐसे कर्मविवेक के कारणभूत वीतराग को, आप जैसे आत्मा को दण्ड देनेवाले ही वणिक् सदृश कहते हैं । यह आपके अज्ञान के अनुरूप ही है।
[७६३] (शाक्यभिक्षु आर्द्रक मुनि से कहने लगे-) कोई व्यक्ति खलो के पिण्ड को 'यह पुरुष है' यों मानकर शूल से बांध कर पकाए अथवा तुम्बे को कुमार मान कर पकाए' तो हमारे मत में वह प्राणिवध के पाप से लिप्त होता है ।