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________________ सूत्रकृत-२/६/-/७७८ २४१ [७७८] प्राणियों के उपमर्दन को आशंका से, सावध अनुष्ठान से विरक्त रहने वाले निर्ग्रन्थ श्रमण समस्त प्राणियों को दण्ड देने का त्याग करते हैं, इसलिए वे (दोषयुक्त) आहारादि का उपभोग नहीं करते । संयमी साधकों का यही परम्परागत धर्म है । [७७९] इस निर्ग्रन्थधर्म में इस समाधि में सम्यक् प्रकार से स्थित हो कर मायारहित हो कर इस निर्ग्रन्थ धर्म में जो विचरण करता है, वह प्रबुद्ध मुनि शील और गुणों से युक्त होकर अत्यन्त पूजा-प्रशंसा प्राप्त करता है । [७८०] ब्राह्मणगण कहने लगे (हे आर्द्रक !) जो प्रति-दिन दो हजार स्नातक ब्राह्मणों को भोजन कराता है, वह महान् पुण्यपुज उपार्जित करके देव होता है, यह वेद का कथन है । [७८१] (आईक ने कहा-) क्षत्रिय आदि कुलो में भोजन के लिए घूमने वाले दो हजार स्नातक ब्राह्मणों को जो प्रतिदिन भोजन कराता है, वह व्यक्ति मांसलोलुप प्राणियों से व्याप्त नरक में जा कर निवास करता है, जहाँ वह तीव्रतम ताप भोगता है । [७८२] दयाप्रधान धर्म की निन्दा और हिंसाप्रधान धर्म की प्रशंसा करने वाला जो नृप एक भी कुशील ब्राह्मण को भोजन कराता है, वह अन्धकारयुक्त नरक में जाता है, फिर देवों में जाने की तो बात ही क्या है ? [७८३] (सांख्यमतवादी एकदण्डीगण आर्द्रकमुनि से कहने लगे-) आप और हम दोनों ही धर्म में सम्यक् प्रकार से उत्थित हैं । तीनों कालों में धर्म में भलीभांति स्थित हैं । (हम दोनों के मत में) आचारशील पुरुष को ही ज्ञानी कहा गया है । आपके और हमारे दर्शन में 'संसार' के स्वरूप में कोई विशेष अन्तर नहीं है । [७८४] यह पुरुष (जीवात्मा) अव्यक्तरूप (मन और इद्रियों से अगोचर) है, तथा यह सर्वलोकव्यापी सनातन अक्षय एवं अव्यय है । यह जीवात्मा समस्त भूतों में सम्पूर्ण रूप से उसी तरह रहता है, जिस तरह चन्द्रमा समस्त तारगण के साथ सम्पूर्ण रूप से रहता है | [७८५] (आर्द्रक मुनि कहते हैं-) इस प्रकार (आत्मा को एकान्त नित्य एवं सर्वव्यापक) मानने पर संगति नहीं हो सकती और जीव का संसरण भी सिद्ध नहीं हो सकता । और न ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और प्रेष्य रूप भेद ही सिद्ध हो सकते हैं । तथा कीट, पक्षी, सरीसृप इत्यादि योनियों की विविधता भी सिद्ध नहीं हो सकती । इसी प्रकार मनुष्य, देवलोक के देव आदि सब गतियाँ भी सिद्ध नहीं होंगी । [७८६] इस लोक को केवलज्ञान के द्वारा न जान कर अनभिज्ञ जो व्यक्ति धर्म का उपदेश करते हैं, वे स्वयं नष्ट जीव अपने आप का और दूसरे को भी अपार तथा भयंकर संसार में नाश कर देते हैं । [७८७] परन्तु जो व्यक्ति समाधियुक्त हैं, वे पूर्ण केवलज्ञान द्वारा इस लोक को विविध प्रकार से यथावस्थित रूप से जान पाते हैं, समस्त धर्म का प्रतिपादन करते हैं । स्वयं संसारसागर से पार हुए पुरुष दूसरों को भी संसार सागर से पार करते हैं । [७८८] इस लोक में जो व्यक्ति निन्दनीय स्थान का सेवन करते हैं, और जो साधक उत्तम आचरणों से युक्त हैं, उन दोनों के अनुष्ठानों को असर्वज्ञ व्यक्ति अपनी बुद्धि से एक समान बतलाते हैं । अथवा हे आयुष्मन् ! वे विपरीतप्ररूपणा करते हैं । ___ [७८९] अन्त में हस्तितापस आर्द्रकमुनि से कहते हैं-) हम लोग शेष जीवों की दया
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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