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सूत्रकृत-२/४/-/७०१
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एवं प्रत्याख्यान न करने वाला, पापक्रिया से युक्त, संवररहित, एकान्तरूप से प्राणियों को दण्ड देने वाला, सर्वथा बाल एवं सर्वथा सुप्त भी होता है । वह अज्ञानी जीव चाहे मन, वचन, काया और वाक्य का विचारपूर्वक (पापकर्म में) प्रयोग न करता हो, भले ही वह स्वप्न भी न देखता हो, तो भी वह (अप्रत्याख्यानी होन के कारण) पापकर्म का बन्ध करता रहता है ।
जैसे वध का विचार करने वाला घातक परुष उस गृहपति या गहपतिपत्र की अथवा राजा या राजपुरुष की प्रत्येक की अलग अलग हत्या करने का दुर्विचार चित्त में लिये हुए अहर्निश, सोते या जागते उसी धुन में रहता है, वह उनका शत्रु-सा बना रहता है, उसके दिमाग में धोखे देने के दुष्ट विचार घर किये रहते हैं, वह सदैव उनकी हत्या करने की धुन में रहता है, शठतापूर्वक प्राणि-दण्ड के पुष्ट विचार ही चित्त में किया करता है, इसी तरह समस्त प्राणों, भूतों-जीवों और सत्त्वों के, प्रत्येक के प्रति चित्त में निरन्तर हिंसा के भाव रखने वाला और प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक के पापस्थानों से अविरत, अज्ञानी जीव दिन-रात, सोते या जागते सदैव उन प्राणियों का शत्रु-सा बना रहता है, उन्हें धोखे से मारने का दुष्ट विचार करता है, एवं नित्य उन जीवों के शठतापूर्वक घात की बात चित्त में घोटता रहता है । स्पष्ट है कि ऐसे अज्ञानी जीव जब तक प्रत्याख्यान नहीं करते, तब तक वे पापकर्म से जरा भी विरत नहीं होते, इसलिए पापकर्म का बन्ध होता रहता है ।
[७०२] प्रेरक ने एक प्रतिप्रश्न उठाया इस जगत् में बहुत-से ऐसे प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व हैं, उनके शरीर के प्रमाण को न कभी देखा है, न ही सुना है, वे प्राणी न तो अपने अभिमत हैं, और न वे ज्ञात हैं । इस कारण ऐसे समस्त प्राणियों में से प्रत्येक प्राणी के प्रति हिंसामय चित्त रखते हुए दिन-रात, सोते या जागते उनका अमित्र (बना रहना, तथा उनके साथ मिथ्या व्यवहार करने में संलग्न रहना, एवं सदा उनके प्रति शठतापूर्ण हिंसामय चित्त रखना, सम्भव नहीं है, इसी तरह प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक के पापों में ऐसे प्राणियों का लिप्त रहना भी सम्भव नहीं है ।
[७०३] आचार्य ने कहा-इस विषय में भगवान महावीर स्वामी ने दो दृष्टान्त कहे हैं, एक संज्ञिदृष्टान्त और दूसरा असंज्ञिदृष्टान्त । (प्रश्न-) यह संज्ञी का दृष्टान्त क्या है ? (उत्तर-) संज्ञी का दृष्टान्त इस प्रकार है-जो ये प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तक जीव हैं, इनमें पृथ्वीकाय से लेकर त्रसकाय तक षड्जीवनिकाय के जीवों में से यदि कोई पुरुष पृथ्वीकाय से ही अपना आहारादि कृत्य करता है, कराता है, तो उसके मन में ऐसा विचार होता है कि मैं पृथ्वीकाय से अपना कार्य करता भी हूँ और कराता भी हूँ, उसे उस समय ऐसा विचार नहीं होता कि वह इस या इस (अमुक) पृथ्वी (काय) से ही कार्य करता है, कराता है, सम्पूर्ण पृथ्वी से नहीं । वह पृथ्वीकाय से ही कार्य करता है और कराता है । इसलिए वह व्यक्ति पृथ्वीकाय का असंयमी, उससे अविरत, तथा उसकी हिंसा का प्रतिघात और प्रत्याख्यान किया हुआ नहीं है । इसी प्रकार त्रसकाय तक के जीवों के विषय में कहना चाहिए । यदि कोई व्यक्त छह काया के जीवों से कार्य करता है, कराता भी है, त वह यही विचार करता है कि मैं छह काया के जीवों से कार्य करता हूँ, कराता भी हूँ । उस व्यक्ति को ऐसा विचार नहीं होता, कि वह अमुक-अमुक जीवों से ही कार्य करता और कराता है, क्योंकि वह सामान्यरूप से उन छहों जीवनिकायों से कार्य करता है और कराता भी है । इस