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________________ २३४ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद कारण वह प्राणी उन छहों जीवनिकायों के जीवों की हिंसा से असंयत, अविरत है, और उनकी हिंसा आदि से जनित पापकर्मो का प्रतिघात और प्रत्याख्यान किया हुआ नहीं है । इस कारण वह प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक के सभी पापों का सेवन करता है । तीर्थंकर भगवान् ने ऐसे प्राणी को असंयत, अविरत, पापकर्मों का नाश तथा प्रत्याख्यान से निरोध न करने वाला कहा है । चाहे वह प्राणी स्वप्न भी न देखता हो, तो भी वह पापकर्म करता है । (प्रश्न-) 'वह असंज्ञिदृष्टान्त क्या है ?' (उत्तर-) असंज्ञी का दृष्टान्त इस प्रकार है'पृथ्वीकायिक जीवों से लेकर वनस्पतिकायिक जीवों तक पांच स्थावर एवं छठे जो त्रससंज्ञक अमनस्क जीव हैं, वे असंज्ञी हैं, जिनमें न तर्क है, न संज्ञा है न प्रज्ञा है, न मन है, न वाणी है, और जो न तो स्वयं कर सकते हैं और न ही दूसरे से करा सकते हैं, और न करते हुए को अच्छा समझ सकते हैं; तथापि वे अज्ञानी प्राणी भी समस्त प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों के दिन-रात सोते या जागते हर समय शत्रु-से बने रहते हैं, उन्हें धोखा देने में तत्पर रहते हैं, उनके प्रति सदैव हिंसात्मक चित्तवृत्ति रखते हैं, इसी कारण वे प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह ही पापस्थानों में सदा लिप्त रहते हैं । इस प्रकार यद्यपि असंज्ञी जीवों के मन नहीं होता, और न ही वाणी होती है, तथापि वे समस्त प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों को दुःख देने, शोक उत्पन्न करने, विलाप कराने, रुलाने, पीड़ा देने, वध करने, तथा परिताप देने अथवा उन्हें एक ही साथ दुःख, शोक, विलाप, रुदन, पीड़न, संताप वधबन्धन, परिक्लेश आदि करने से विरत नहीं होते, अपितु पापकर्म में सदा रत रहते हैं । इस प्रकार वे प्राणी असंज्ञी होते हुए भी अहर्निश प्राणातिपात, में मृषावाद आदि से लेकर परिग्रह तक में तथा मिथ्यादर्शनशल्य तक के समस्त पापस्थानों में प्रवृत्त कहे जाते हैं । सभी योनियों के प्राणी निश्चितरूप से संज्ञी होकर असंज्ञी हो जाते हैं, तथा असंज्ञी होकर संज्ञी हो जाते हैं | वे संज्ञी या असंज्ञी होकर यहाँ पापकर्मों को अपने से अलग न करके, तथा उन्हें न झाड़कर उनका उच्छेद न करके तथा उनके लिए पश्चात्ताप न करके वे संज्ञी के शरीर से संज्ञी के शरीर में आते हैं, अथवा संज्ञी के शरीर से असंज्ञी के शरीर में संक्रमण करते हैं, अथवा असंज्ञीकाय से संज्ञीकाय में संक्रमण करते हैं अथवा असंज्ञी की काया से असंज्ञी की काया में आते हैं | जो ये संज्ञी अथवा असंज्ञी प्राणी होते हैं, वे सब मिथ्याचारी और सदैव शठतापूर्ण हिंसात्मक चित्तवृत्ति धारण करते हैं । अतएव वे प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शमशल्य तक पापस्थानों का सेवन करने वाले हैं । इसी कारण से ही भगवान् महावीर ने इन्हें असंयत, अविरत, पापों का प्रतिघात और प्रत्याख्यान न करने वाले, अशुभक्रियायुक्त, संवररहित, एकान्त हिंसक, एकान्त बाल और एकान्त सुप्त कहा है । वह अज्ञानी जीव भले ही मन, वचन, काया और वाक्य का प्रयोग विचारपूर्वक न करता हो, तथा (हिंसा का) स्वप्न भी न देखता हो,- फिर भी पापकर्म (का बन्ध) करता रहता है ।। [७०४] (प्रेरक ने पुनः कहा) मनुष्य क्या करता हुआ, क्या कराता हुआ तथा कैसे संयत, विरत, तथा पापकर्म का प्रतिघात और प्रत्याख्यान करने वाला होता है ? आचार्य ने कहा-इस विषय में तीर्थंकर भगवान् ने षड् जीवनिकायों को (संयम अनुष्ठान का) कारण बताया है । वे छह प्राणिसमूह इस प्रकार हैं-पृथ्वीकाय से लेकर त्रसकाय तक के जीव । जैसे कि किसी व्यक्ति द्वारा डंडे से, हड्डियों से, मुक्कों से ढेले से या ठीकरे से मैं ताड़न किया जाऊं
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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