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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
है । जो प्राणी हिंसा करता है, हिंसायुक्त मनोव्यापार से युक्त है, जो जान-बूझ कर मन, वचन, काया और वाक्य का प्रयोग करता है, जो स्पष्ट विज्ञानयुक्त भी है । इस प्रकार के गुणों से युक्त जीव पापकर्म करता है । पुनः प्रेरक कहता है-'इस विषय में जो लोग ऐसा कहते हैं कि मन पापयुक्त न हो, वचन भी पापयुक्त न हो, तथा शरीर भी पापयुक्त न हो, किसी प्राणी का घात न करता हो, अमनस्क हो, मन, वचन, काया और वाक्य के द्वारा भी विचार से रहित हो, स्वप्न में भी (पाप) न देखता हो, तो भी (वह) पापकर्म करता है ।" जो इस प्रकार कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं ।"
इस सम्बन्ध में प्रज्ञापक ने प्रेरक से कहा-जो मैंने पहले कहा था कि मन पाप युक्त न हो, वचन भी पापयुक्त न हो, तथा काया भी पापयुक्त न हो, वह किसी प्राणी की हिंसा भी न करता हो, मनोविकल हो, चाहे वह मन, वचन, काया और वाक्य का समझ-बूझकर प्रयोग न करता हो, और वैसा (पापकारी) स्वप्न भी न देखता हो, ऐसा जीव भी पापकर्म करता है, वही सत्य है । ऐसे कथन के पीछे कारण क्या है ? आचार्य ने कहा-इस विषय में श्री तीर्थंकर भगवान् ने षट्जीवनिकाय कर्मबन्ध के हेतु के रूप में बताए हैं । इन छह प्रकार के जीवनिकाय के जीवों की हिंसा से उत्पन्न पाप को जिस आत्मा ने नष्ट नहीं किया, तथा भावी पाप को प्रत्याख्यान द्वारा रोका नहीं, बल्कि सदैव निष्ठुरतापूर्वक प्राणियों की घात में चित्त लगाए रखता है, और उन्हें दण्ड देता है तथा प्राणातिपात से लेकर परिग्रह-पर्यन्त तथा क्रोध से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक के पापस्थानों से निवृत्त नहीं होता है ।
आचार्य पुनः कहते हैं इसके विषय में भगवान् महावीर ने वधक का दृष्टान्त बताया है कोई हत्यारा हो, वह गृहपति की अथवा गृहपति के पुत्र की अथवा राजा की या राजपुरुष की हत्या करना चाहता है । अवसर पाकर मैं घर में प्रवेश करूंगा और अवसर पाते ही प्रहार करके हत्या कर दूंगा । इस प्रकार वह हत्यारा दिन को या रात को, सोते या जागते प्रतिक्षण इसी उधेड़बुन में रहता है, जो उन सबका अमित्र भूत है, उन सबसे मिथ्या व्यवहार करने में जुटा हुआ है, जो चित्त रूपी दण्ड में सदैव विविध प्रकार से निष्ठुरतापूर्वक घात का दुष्ट विचार रखता है, क्या ऐसा व्यक्ति उन पूर्वोक्त व्यक्तियों का हत्यारा कहा जा सकता है, या नहीं ? आचार्यश्री के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर प्रेरक समभाव के साथ कहता है-“हाँ, पूज्यवर ! ऐसा पुरुष हत्यारा ही है ।"
आचार्य ने कहा-जैसे उस गृहपति या गृहपति के पुत्र को अथवा राजा या राजपुरुष को मारना चाहने वाला वह वधक पुरुष सोचता है कि मैं अवसर पा कर इसके मकान में प्रवेश करूंगा और मौका मिलते ही इस पर प्रहार करके वध कर दूंगा; ऐसे कुविचार से वह दिनरात, सोते-जागते हरदम घात लगाये रहता है, सदा उनका शत्रु बना रहता है, मिथ्या कुकृत्य करने पर तुला हुआ है, विभिन्न प्रकार से उनके घात के लिए नित्य शठतापूर्वक दुष्टचित्त में लहर चलती रहती है, इसी तरह बाल जीव भी समस्त प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्वों का दिन-रात, सोते या जागते सदा वैरी बना रहता है, मिथ्याबुद्धि से ग्रस्त रहता है, उन जीवों को नित्य निरन्तर शठतापूर्वक हनन करने की बात चित्त में जमाए रखता है, क्योंकि वह प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह ही पापस्थानों में ओतप्रोत रहता है । इसीलिए भगवान् ने ऐसे जीव के लिए कहा है कि वह असंयत, अविरत, पापकर्मों का नाश