SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 232
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्रकृत - २/३/-/६९६ मसारगल्ल, भुजपरिमोचकरत्न तथा इन्द्रनीलमणि । [६९७] चन्दन, गेरुक, हंसगर्भ, पुलक, सौगन्धिक, चन्द्रप्रभ, वैडूर्य, जलकान्त, एवं सूर्यकान्त, ये मणियों के भेद हैं । २३१ [६९८] इन गाथाओं में उक्त जो मणि, रत्न आदि कहे गए हैं, उन में वे जीव उत्पन्न होते हैं । वे जीव अनेक प्रकार के त्रस स्थावर प्राणियों के स्नेह का आहार करते हैं । पृथ्वी आदि शरीरों का भी आहार करते हैं । उन त्रस और स्थावरों से उत्पन्न प्राणियों के दूसरे शरीर भी नाना वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, संस्थान आदि की अपेक्षा से बताए गए हैं । शेष तीन आलापक जलकायिक जीव के आलापकों के समान ही समझना । 1 [ ६९९ ] समस्त प्राणी, सर्व भूत, सर्व सत्त्व और सर्व जीव नाना प्रकार की योनियों में उत्पन्न होते हैं, वहीं वे स्थिति रहते हैं, वहीं वृद्धि पाते हैं । वे शरीर से ही उत्पन्न होते हैं, शरीर में ही रहते हैं, तथा शरीर में ही बढ़ते हैं, एवं वे शरीर का ही आहार करते हैं । वे अपनेअपने कर्म का ही अनुसरण करते हैं, कर्म ही उस उस योनि में उनकी उत्पत्ति का प्रधान कारण है । उनकी गति और स्थिति भी कर्म अनुसार होती है । वे कर्म के ही प्रभाव से सदैव भिन्न-भिन्न अवस्थाओं को प्राप्त करते हुए दुःख के भागी होते हैं । हे शिष्यो ! ऐसा ही जानो, और इस प्रकार जान कर सदा आहारगुप्त, ज्ञान-दर्शनचारित्रसहित, समितियुक्त एवं संयमपालन में सदा यत्नशील बनो । ऐसा मैं कहता हूँ । अध्ययन - ३ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण अध्ययन - ४ प्रत्याख्यानक्रिया [७००] आयुष्मन् ! उन तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी ने ऐसा कहा था, इस निर्ग्रन्थप्रवचन में प्रत्याख्यानक्रिया अध्ययन है । उसका यह अर्थ बताया है कि आत्मा अप्रत्याख्यानी भी होता है; आत्मा अक्रियाकुशल भी होता है; आत्मा मिथ्यात्व में संस्थित भी होता है; आत्मा एकान्तरूप से दूसरे प्राणियों को दण्ड देने वाला भी होता है; आत्मा एकान्त बाल भी होता है; आत्मा एकान्तरूप से सुषत भी होता है; आत्मा अपने मन, वचन, काया और वाक्य पर विचार न करने वाला भी होता है । और आत्मा अपने पापकर्मों का प्रतिहत एवं प्रत्याख्यान नहीं करता । इस जीव को भगवान् ने असंयत, अविरत, पापकर्म का घात और प्रत्याख्यान न किया हुआ, क्रियासहित, संवरहित, प्राणियों को एकान्त दण्ड देने वाला, एकान्त बाल, एकान्तसुप्त कहा है । मन, वचन, काया और वाक्य के विचार से रहित वह अज्ञानी, चाहे स्वप्न भी न देखता हो तो भी वह पापकर्म करता है । [ ७०१] इस विषय में प्रेरक ने प्ररूपक से इस प्रकार कहा- पापयुक्त मन न होने पर, पापयुक्त वचन न होने पर, तथा पापयुक्त काया न होने पर जो प्राणियों की हिंसा नहीं करता, जो अमनस्क है, जिसका मन, वचन, शरीर और वाक्य हिंसादि पापकर्म के विचार से रहित है, जो पापकर्म करने का स्वप्न भी नहीं देखता ऐसे जीव के पापकर्म का बन्ध नहीं होता । किस कारण से उसे पापकर्म का बन्ध नहीं होता ? प्रेरक इस प्रकार कहता है- किसी का मन पापयुक्त होने पर ही मानसिक पापकर्म किया जाता है, तथा पापयुक्त वचन होने पर ही वाचिक पापकर्म किया जाता है, एवं पापयुक्त शरीर होने पर ही कायिक पापकर्म किया जाता
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy