SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 220
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्रकृत–२/२/-/६७० २१९ हैं, कई प्रतिमा धारण करके कायोत्सर्गस्थ रहते हैं, कई उत्कट आसन से बैठते हैं, कई आसनयुक्त भूमि पर ही बैठते हैं, कई वीरासन लगा कर बैठते हैं, कई डंडे की तरह आयतलम्बे हो कर लेटते हैं, कई लगंडशायी होते हैं । कई बाह्य प्रावरण से रहित हो कर रहते हैं, कई कायोत्सर्ग में एक जगह स्थित हो कर रहते हैं कई शरीर को नहीं खुजलाते, वे थूक को भी बाहर नहीं फेंकते । वे सिर के केश, मूंछ, दाढ़ी, रोम और नख की काँटछांट नहीं करते, तथा अपने सारे शरीर का परिकर्म नहीं करते । वे महात्मा इस प्रकार उग्रविहार करते हुए बहुत वर्षों तक श्रमणपर्याय का पालन करते हैं । रोगादि अनेकानेक बाधाओं के उपस्थित होने या न होने पर वे चिरकाल तक आहार का त्याग करते हैं । वे अनेक दिनों तक भक्त प्रत्याख्यान करके उसे पूर्ण करते हैं । अनशन को पूर्णतया सिद्ध करके जिस प्रयोजन से उन महात्माओं द्वारा ननभाव, मुण्डित भाव, अस्नान भाव, अदन्तधावन, छाते और जूते का उपयोग न करना, भूमिशयन, काष्ठफलकशयन, केशलुंचन, ब्रह्मचर्य-वास, भिक्षार्थ परगृह-प्रवेश आदि कार्य किये जाते हैं, तथा जिसके लिए लाभ और अलाभ मान-अपमान, अवहेलना, निन्दा, फटकार, तर्जना, मार-पीट, धमकियाँ तथा ऊँची-नीची बातें, एवं कानों को अप्रिय लगने वाले अनेक कटुवचन आदि बावीस प्रकार के परीषह एवं उपसर्ग समभाव से सहे जाते है, उस उद्देश्य की आराधना कर लेते हैं । उस उद्देश्य की आराधना करके अन्तिम श्वासोच्छ्वास में अनन्त, अनुत्तर, नियाघात, निरावरण, सम्पूर्ण और प्रतिपूर्ण केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त कर लेते हैं । केवलज्ञान-केवल दर्शन उपार्जित करने के पश्चात् वे सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, सर्व कर्मों से मुक्त होते हैं; परिनिर्वाण को प्राप्त कर लेते हैं, और समस्त दुःखों का अन्त कर देते हैं । कई महात्मा एक ही भव में संसार का अन्त कर लेते हैं । दूसरे कई महात्मा पूर्वकर्मों के शेष रह जाने के कारण मृत्यु प्राप्त करके किसी देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होते हैं । जैसे कि-महान् ऋद्धि वाले, महाद्युति वाले, महापराक्रमयुक्त महायशस्वी, महान् बलशाली महाप्रभावशाली और महासुखदायी जो देवलोक हैं, उनमें वे देवरूप में उत्पन्न होते हैं, वे देव महाकृद्धि सम्पन्न, महाधुति सम्पन्न यावत् महासुखसम्पन्न होते हैं । उनके वक्षःस्थल हारों से सुशोभित रहते हैं, उनकी भुजाओं में कड़े, बाजूबन्द आदि आभूषण पहने होते हैं, उनके कपोलों पर अंगद और कुण्डल लटकते रहते हैं । वे कानों में कर्णफूल धारण किये होते हैं । उनके हाथ विचित्र आभूषणों से युक्त रहते हैं । वे सिर पर विचित्र मालाओं से सुशोभित मुकुट धारण करते हैं । वे कल्याणकारी तथा सुगन्धित उत्तम वस्त्र पहनते हैं, तथा कल्याणमयी श्रेष्ठ माला और अंगलेपन धारण करते हैं । उनका शरीर प्रकाश से जगमगाता रहता है । वे लम्बी वनमालाओं को धारण करनेवाले देव होते हैं । वे अपने दिव्यरूप, दिव्यवर्ण, दिव्यगन्ध, दिव्यस्पर्श, दिव्यसंहनन, दिव्य संस्थान, तथा दिव्यऋद्धि, धुति, प्रभा, छाया, अर्चा तेज और लेश्या से दसों दिशाओं को आलोकित करते हुए, चमकाते हुए कल्याणमयी गति और स्थिति वाले तथा भविष्य में भद्रक होने वाले देवता बनते हैं । यह (द्वितीय) स्थान आर्य है, यावत् यह समस्त दुःखों को नष्ट करने वाला मार्ग है । यह स्थान एकान्त सम्यक् और बहुत अच्छा है । [६७१] इसके पश्चात् तृतीय स्थान, जो मिश्रपक्ष है, उसका विभंग इस प्रकार है
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy