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________________ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद इस मनुष्यलोक में पूर्व आदि दिशाओं में कई मनुष्य होते हैं, जैसे कि वे अल्प इच्छा वाले, अल्पारम्भी और अल्पपरिग्रही होते हैं । वे धर्माचरण करते हैं, धर्म के अनुसार प्रवृत्ति करते हैं, यहाँ तक कि धर्मपूर्वक अपनी जीविका चलाते हुए जीनयापन करते हैं । वे सुशील, सुव्रती सुगमता से प्रसन्न हो जाने वाले और साधु होते हैं । एक ओर वे किसी प्राणातिपात से जीवनभर विरत होते हैं तथा दूसरी ओर किसी प्राणातिपात से निवृत्त नहीं होते, ( इसी प्रकार मृषावाद, आदि से) निवृत्त और कथंचित् अनिवृत्त होते हैं । ये और इसी प्रकार के अन्य बोधिनाशक एवं अन्य प्राणियों को परिताप देने वाले जो सावद्यकर्म हैं उनसे निवृत्त होते हैं, दूसरी ओर कतिपय कर्मो से वे निवृत्त नहीं होते । २२० | इस मिश्रस्थान के अधिकारी श्रमणोपासक होते हैं, जो जीव और अजीव के स्वरूप के ज्ञाता पुण्य-पाप के रहस्य को उपलब्ध किये हुए, तथा आश्रव, संवर, वेदना, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बन्ध एवं मोक्ष के ज्ञान में कुशल होते हैं । वे श्रावक असहाय होने पर भी देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किम्पुरुष, गरुड़, गन्धर्व, महोरग आदि देव गणों और इन के द्वारा दबाव डाले जाने पर भी निर्ग्रन्थ प्रवचन का उल्लंघन नहीं करते । वे श्रावक इस निर्ग्रन्थ प्रवचन के प्रति निःशंकित, निष्कांक्षित, एवं निर्विचिकित्स होते हैं । वे सूत्रार्थ के ज्ञाता, उसे समझे हुए, और गुरु से पूछे हुए होते हैं, सूत्रार्थ का निश्चय किये हुए तथा भली भांति अधिगत किए होते हैं । उनकी हड्डियाँ और रगें उसके प्रति अनुराग से रंजित होती वे श्रावक कहते हैं - 'यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ही सार्थक है, परमार्थ है, शेष सब अनर्थक हैं ।' वे स्फटिक के समान स्वच्छ और निर्मल हृदय वाले होते हैं, उनके घर के द्वार भी खुले रहते हैं; उन्हें राजा के अन्तःपुर के समान दूसरे के घर में प्रवेश अप्रीतिकर लगता है, वे श्रावक चतुर्दशी, अष्टमी, पूर्णिमा आदि पर्वतिथियों में प्रतिपूर्ण पौषधोपवास का सम्यक् प्रकार से पालन करते हुए तथा श्रमण निर्ग्रन्थों को प्रासुक एषणीय अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादप्रोंछन, औषध, भैषज्य, पीठ, फलक, शय्या - संस्तारक, तृण आदि भिक्षारूप में देकर बहुत लाभ लेते हुए, एवं यथाशक्ति यथारुचि स्वीकृत किये हुए बहुत से शीलव्रत, गुणव्रत, अणुव्रत, त्याग, प्रत्याख्यान, पौषध और उपवास आदि तपः कर्मों द्वारा अपनी आत्मा को भावित करते हुए जीवन व्यतीत करते हैं । I वे इस प्रकार के आचरणपूर्वक जीवनयापन करते हुए बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक पर्याय पालन करते हैं । यों श्रावकव्रतों की आराधना करते हुए रोगादि कोई बाधा उत्पन्न होने पर या न होने पर भी बहुत लम्बे दिनों तक का भक्त - प्रत्याख्यान करते हैं । वे चिरकाल तक का भक्त प्रत्याख्यान करके उस अनशन संथारे को पूर्ण करके करते हैं । उस अवमरण अनशन को सिद्ध करके अपने भूतकालीन पापों की आलोचना एवं प्रतिक्रमण करके समाधिप्राप्त होकर मृत्यु का अवसर आने पर मृत्यु प्राप्त करके किन्हीं देवलोकों में से किसी एक में देवरूप में उत्पन्न होते हैं । तदनुसार वे महाऋद्धि, महाद्युति, महाबल, महायश यावत् महासुख वाले देवलोकों में महाऋद्धि आदि से सम्पन्न देव होते हैं । शेष बातें पूर्ववत् | यह स्थान आर्य, एकान्त सम्यक् और उत्तम है । इस तृतीय स्थान का स्वामी अविरति की अपेक्षा से बाल, विरति की अपेक्षा से पण्डित और विरता- विरति की अपेक्षा से बालपण्डित कहलाता है । इन तीनों स्थानों में से समस्त पापों से अविरत होने का जो स्थान है, वह आरम्भस्थान
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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