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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
प्रतिबन्ध से रहित होते हैं । शरदकाल के स्वच्छ पानी की तरह उनका हृदय भी शुद्ध और स्वच्छ होता है । कमल का पत्ता जैसे जल के लेप से रहित होता है, वैसे ही ये भी कर्म मल के लेप से दूर रहते हैं, वे कछुए की तरह अपनी इन्द्रियों को गुप्त-सुरक्षित रखते हैं । जैसे आकाश में पक्षी स्वतन्त्र विहारी होता है, वैसे ही वे महात्मा समस्त ममत्त्वबन्धनों से रहित होकर आध्यात्मिक आकाश में स्वतन्त्रविहारी होते हैं । जैसे गेंडे का एक ही सींग होता है, वैसे ही वे महात्मा भाव से राग-द्वेष रहित अकेले ही होते हैं । वे भारण्डपक्षी की तरह अप्रमत्त होते हैं । जैसे हाथी वृक्ष को उखाड़ने में समर्थ होता है, वैसे ही वे मुनि कषायों को निर्मूल करने में शूरवीर एवं दक्ष होते हैं । जैसे बैल भारवहन में समर्थ होता है, वैसे ही वे मुनि संयम भारवहन में समर्थ होते हैं । जैसे सिंह दूसरे पशुओं से दबता नहीं, वैसे ही वे महामुनि परीषहों और उपसर्गों से दबते नहीं ।
जैसे मन्दर पर्वत कम्पित नहीं होता वैसे ही वे महामुनि कष्टों, उपसर्गों और भयों से नहीं कांपते । वे समुद्र की तरह गम्भीर होते हैं, उनकी प्रकृति चन्द्रमा के समान सौम्य एवं शीतल होती है; उत्तम जाति के सोने में जैसे मल नहीं लगता, वैसे ही उन महात्माओं के कर्ममल नहीं लगता । वे पृथ्वी के समान सभी स्पर्श सहन करते हैं । अच्छी तरह होम की हुई अग्नि के समान वे अपने तेज से जाज्वल्यमान रहते हैं । उन अनगार भगवन्तों के लिए किसी भी जगह प्रतिबन्ध नहीं होता । प्रतिबन्ध चार प्रकार से होता है, जैसे कि अण्डे से उत्पन्न होने वाले हंस, मोर आदि पक्षियों से, पोतज, अवग्रहिक तथा औपग्रहिक होता है । वे जिस-जिस दिशा में विचरण करना चाहते हैं, उस-उस दिशा में अप्रतिबद्ध, शुचिभूत, अपनी त्यागवृत्ति के अनुरूप अणु ग्रन्थ से भी दूर होकर संयम एवं तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरण करते हैं ।
उन अनगार भगवन्तों की इस प्रकार की संयम यात्रा के निर्वाहार्थ यह वृत्ति होती है, जैसे कि वे चतुर्थभक्त, षष्ठभक्त, अष्टमभक्त, दशमभक्त, द्वादशभक्त, चतुर्दश भक्त अर्द्ध मासिक भक्त, मासिक भक्त, द्विमासिक, तप, त्रिमासिक तप, चातुर्मासिक तप, पंचमासिक तप, एवं पाण्मासिक तप, इसके अतिरिक्त भी कोई कोई निम्नोक्त अभिग्रहों के धारक भी होते हैं । जैसे कई उत्क्षिप्तचरक, निक्षिप्तचरक होते हैं, कई उत्क्षिप्त और निक्षिप्त दोनों प्रकार की चर्या वाले होते हैं, कोई अन्त, प्रान्त, रूक्ष, सामुदानिक, संसृष्ट, असंसृष्ट आहार लेते है, कोई जिस अन्न या शाक आदि से चम्मच या हाथ भरा हो, उसी हाथ या चम्मच से उसी वस्तु को लेने का अभिग्रह करते हैं, कोई देखे हुए आहार को लेने का अभिग्रह करते हैं, कोई पूछ कर और कई पूछे बिना आहार ग्रहण करते हैं । कोई तुच्छ और कोई अतुच्छ भिक्षा ग्रहण करते हैं । कोई अज्ञात घरों से आहार लेते हैं, कोई आहार के बिना म्लान होने पर ही आहार ग्रहण करते हैं। कोई दाता के निकट रखा हुआ, कई दत्ति की संख्या करके, कोई परिमित, और कोई शुद्ध आहार की गवेषणा करके आहार लेते हैं, वे अन्ताहारी, प्रान्ताहारी होते हैं, कई अस्साहारी एवं कई विरसाहारी होते हैं, कई रूखा-सूखा आहार करने वाले तथा कई तुच्छ आहार करने वाले होते हैं । कोई अन्त या प्रान्त आहार से ही अपना जीवन निर्वाह करते हैं ।
कोई पुरिमड्ड तप करते हैं, कोई आयम्बिल तप-श्चरण करते हैं, कोई निर्विगयी तप करते हैं, वे अधिक मात्रा में सरस आहार का सेवन नहीं करते, कई कायोत्सर्ग में स्थित रहते