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सूत्रकृत-१/११/-/४९९
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[४९९] यदि कोई देव अथवा मनुष्य हमसे पूछे तो उन्हें कौनसा मार्ग बतलाएँ, वह हमें बताइये ।
[५००] यदि कुछ देव या मनुष्य तुमसे पूछे तब उन्हें जो संक्षिप्त मार्ग कहा जाए वह मुझसे सुनो ।
[५०१] काश्यप द्वारा प्रवेदित मार्ग बड़ा कठिन है, जिसे प्राप्त कर अनेक लोग समुद्र व्यापारी [की तरह]
[५०२] [संसार-सागर को] तर गये हैं, तर रहे हैं और भविष्य में तरेंगे । उसे सुनकर जो कहूँगा उसे हे प्राणियों ! मुझसे सुनो ।
[५०३] पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, बीज, तृण और वृक्ष - ये सभी जीव पृथक्पृथक् सत्त्व (अस्तित्व) वाले हैं ।।
[५०४] इनके अतिरिक्त त्रस प्राणी होते हैं । इस प्रकार षट्काय बताए गये हैं । जीव-काय इतने ही हैं । इनके अतिरिक्त कोई जीवकाय नहीं हैं ।
[५०५] मतिमान् सभी युक्तियों से जीवों का प्रतिलेखन करे । सभी प्राणियों को दुःख अप्रिय है अतः सभी अहिंस्य है ।
[५०६] यही ज्ञानियों का सार है कि वह किसी की हिंसा नहीं करता है । समता अहिंसा है इतना ही उसे जानना चाहिये ।
[५०७] ऊर्ध्व, अधो और तिर्यक् लोक में जितने भी त्रस और स्थावर जीव हैं, सर्वत्र हिंसा से विरत रहे [क्योकि] शान्ति को निर्वाण कहा गया है ।
[५०८] प्रभु/ज्ञान मनीषी दोषों का निराकरण कर किसी के साथ मन, वचन, काया से आजीवन वैर-विरोध न करे ।
[५०९] संवृत महाप्राज्ञ और धीर दत्तैषणा की चर्या करे । अनेषणीय का त्याग करे एवं नित्य एषणा-समिति का पालन करे ।
[५१०] जीवों का समारम्भ कर साधु के उद्देश्य से निर्मित अन्नपान सुसंयती ग्रहण न करे ।
५११] पूतिकर्म का सेवन न करे यही वृषीमत धर्म है । जहाँ किञ्चित् भी आशंका हो वह सर्वथा अकल्पनीय है ।
[५१२] आत्मगुप्त, जितेन्द्रय हिंसा/हिंसक का अनुमोदन न करे | ग्राम या नगरों में श्रद्धालुओं के स्थान होते हैं ।
[५१३] कोई पूछे, अमुक कार्य में पुण्य है या नहीं । तो पुण्य है - ऐसा भी न कहे अथवा पुण्य नहीं है ऐसा भी न कहे । यह कहना महाभयकारक है ।
[५१४] दानार्थ जितने भी त्रस और स्थावर प्राणी मारे जाते हैं उनके संरक्षणार्थ पुण्य है - यह भी न कहे ।
[५१५] जिनको देने के लिए पूर्वोक्त अन्नपान बनाया जाता है उसमें लाभान्तराय है अतः पुण्य नहीं है - यह न कहे ।
[५१६] जो इस दान की प्रशंसा करते हैं, वे प्राणिवध की इच्छा करते हैं । जो दान का प्रतिषेध करते हैं, वे उनकी वृत्ति का छेदन करते हैं ।