________________
आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
[ ५१७] दान में पुण्य है या नहीं है - जो ये दोनों ही नहीं कहते हैं वे कर्माश्रव का निरोध कर निर्वाण प्राप्त करते हैं ।
१८२
[५१८] जैसे नक्षत्रों में चन्द्रमा श्रेष्ठ है वैसे ही बुद्ध / तीर्थंकर का निर्वाण श्रेष्ठ है । अतः सदा दान्त एवं यत्नशील मुनि निर्वाण का संधान करे ।
[५१९] [ संसार-प्रवाह में प्रवाहित, स्वकर्मो से छिन्न प्राणियों के लिए प्रभु ने साधुक / कल्याणकारी द्वीप का प्रतिपादन किया हैं । इसे 'प्रतिष्ठा' कहा जाता है ।
[५२०] जो आत्मगुप्त, दान्त, छिन्न स्त्रोत एवं निराश्रव है, वह शुद्ध प्रतिपूर्ण अनुपम धर्म का आख्यान करता है ।
[५२१] उससे अनभिज्ञ अबुद्ध स्वयं को बुद्ध कहते हैं । हम बुद्ध हैं- ऐसा मानने वाले समाधि से दूर हैं ।
[५२२] वे बीज, सचित्त जल एवं उद्देश्य से निर्मित आहार ग्रहण कर ध्यान ध्याते हैं । वे अक्षेत्रज्ञ और असमाहित हैं ।
[५२३] जैसे ढंक, कंक, कुरर, मद्गु और शिखी मछली की एषणा का ध्यान करते हैं, वैसे ही वे कलुष और अधम ध्यान करते हैं ।
[५२४] इसी तरह कुछ मिथ्यादृष्टि अनार्य श्रमण विषय एषणा का कंक की तरह ध्यान करते हैं । अतः वे कलुष और अधम हैं ।
उन्मार्गगत कुछ दुर्बुद्धि शुद्ध मार्ग की विराधना कर दुःख तथा मरण की
[ ५२५ ] एषणा करते हैं ।
[५२६] जैसे जन्मान्ध व्यक्ति आस्त्राविणी नाव पर आरूढ़ होकर नदी पार करने की इच्छा करता है, पर मझधार में ही विषाद प्राप्त करता है ।
[५२७] वैसे ही कुछ मिथ्यादृष्टि अनार्य श्रमण सम्पूर्ण स्त्रोत संसार में पड़कर महाभय प्राप्त करते हैं ।
[५२८] काश्यप द्वारा प्रवेदित धर्म को अङ्गीकार कर मुनि महाघोर स्त्रोत तर जाए । आत्मभाव से परिव्रजन करे ।
[५२९] वह ग्राम्यधर्मों से विरत होकर जगत में जितने भी प्राणी हैं उन्हें आत्मतुल्य जानकर पराक्रम करता हुआ परिव्रजन करे ।
[ ५३०] पण्डित मुनि अतिमान और माया को जानकर उनका निराकरण कर निर्वाण का संधान करे ।
[ ५३१] उपधान वीर्य भिक्षु साधु-धर्म का संधान करे और पाप धर्म का निराकरण करे । क्रोध और मान की प्रार्थना न करे ।
[ ५३२] जो अतिक्रान्त बुद्ध और जो अनागत बुद्ध हैं, उनका स्थान शान्ति है जेसे भूतों / प्राणियों के लिए पृथ्वी होती है ।
[ ५३३] व्रत सम्पन्न मुनि ऊँचे-नीचे स्पर्श से स्पर्शित होता है । पर वह उनसे वैसे ही विचलित न हो, जैसे वायु से महापर्वत विचलित नहीं होता ।
[५३४] संवृत, महाप्राज्ञ, धीर साधु दुसरो के दीए हुए आहार आदि की एषणा करे । निर्वृत काल की आकांक्षा करे । यही केवली मत है । ऐसा मैं कहता हूँ ।
अध्ययन - ११ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण