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________________ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद [४८४] एकत्व की अभ्यर्थना करे, यही मोक्ष है, यह मिथ्या नहीं है । यह मोक्ष ही सत्य एवं श्रेष्ठ है, इसे देखो । जो अक्रोधी, सत्यरत एवं तपस्वी है [ वह मोक्ष पाता है । [४८५ ] स्त्री-मैथुन से विरत, अपरिग्रही, ऊँच-नीच विषयों में मध्यस्थ भिक्षु समाधि प्राप्त है । १८० [४८६] भिक्षु अरति और रति को अभिभूत कर तृणादि स्पर्श तथा शीत स्पर्श, उष्ण तथा दंश को सहन करे । सुरभि एवं दुरभि में तितिक्षा रखे । [४८७] गुप्त-वाची एवं समाधि प्राप्त [ भिक्षु विशुद्ध लेश्याओं को ग्रहण कर परिव्रजन करे, स्वयं गृहच्छादन न करे और दूसरों से न करवाए । प्रजा के साथ एक स्थान पर न रहे । [४८८] जगत् में जितने भी अक्रियात्मवादी हैं, वे अन्य के पूछने पर धुत का प्रतिपादन करते हैं, पर वे आरम्भ में आसक्त और लोक में ग्रथित होकर मोक्ष के हेतु धर्म को नहीं जानते हैं । [४८९] उन मनुष्यों के विविध छंद (अभिप्राय) होते हैं । क्रिया और अक्रिया पृथग्वाद है । जैसे नवजात शिशु का शरीर बढ़ता है वैसे ही असंयत का वैर बढ़ता है । [४९०] आयुक्षय से अनभिज्ञ, ममत्वशील, साहसकारी मंद, आर्त्त और मूढ़ स्वयं को अजर-अमर मानकर रात-दिन संतप्त होता है । [४९१] वित्त, पशु, बान्धव और अन्य जो भी प्रियमित्र हैं उन्हें छोड़कर वह विलाप करता है और मोहित होता है, अन्य लोग उसके धन का हरण कर लेते हैं । [४९२] जैसे विचरणशील क्षुद्र मृग सिंह से परिशंकित हो दूर विचरण करते हैं इसी प्रकार मेघावी धर्म की समीक्षा कर दूर से ही पाप का परिवर्जन करे । [४९३] संबुध्यमान्, मतिमान, नर हिंसा प्रसूत दुःख को वैरानुबन्धी एवं महाभयकारी मानकर पाप से आत्म-निवर्तन करे । [४९४ ] आत्मगामी मुनि असत्य न बोले । मृषावाद न स्वयं करे न अन्य से करवाए और न करने वाले का समर्थन करे । यही निर्वाण और सम्पूर्ण समाधि है । [४९५] अमूर्च्छित और अनध्युपपन्न साधक प्राप्त आहार को दूषित न करे । धृतिमान्, विमुक्त भिक्षु पूजनार्थी एवं प्रशंसा कामी न होकर परिव्रजन करे । [४९६] गृह से अभिनिष्क्रमण कर निरवकांक्षी बने शरीर का व्युत्सर्गकर रहितनिदान बने, जीवन मरण का अनिभिकांक्षो एवं वलय से विमुक्त भिक्षु संयम का आचरण करे । - ऐसा मैं कहता हूँ । अध्ययन - १० का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण अध्ययन - ११ मार्ग [ ४९७] मतिमान् माहन द्वारा कौनसा मार्ग प्रवेदित है ? जिस ऋजु मार्ग को पाकर दुस्तर प्रवाह को पार किया जा सकता है । [४९८ ] हे भिक्षु ! शुद्ध, सर्व दुःख विमोक्षी एवं अनुत्तर उस मार्ग को जैसे आप जानते हैं, हे महामुने । वैसे ही कहें ।
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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