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________________ १७० आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद पैर बांधकर हाथ में कुठार लेकर उन्हें फलक की तरह छीला जाता है । [ ३१४] रुधिर से लिप्त, मल से लतपथ, भिन्नांग एवं परिवर्त्तमान नैरयिकों को कड़ाही में जीवित मछलियों की तरह उलट-पलट कर पकाते हैं । [३१५] वे वहाँ राख नहीं होते हैं और न ही तीव्र वेदना से मरते हैं । वे अपने कृत्कर्म का वेदन करते हैं और वे दुःख दुष्कृत् से और अधिक दुःखी होते हैं । [३१६] वहाँ शीत से सन्त्रस्त होकर प्रगाढ़ सुतप्त अग्नि की ओर जाते हैं । वहाँ उस दुर्गम स्थान में वे साता प्राप्त नहीं कर पाते । निरन्तर अभितप्त स्थान में तपाये जाते हैं । [३१७] वहाँ दुःखोपनीत शब्द नगरवध की तरह सुनाई देते हैं । उदीर्णकर्मी उदीर्णकर्मियों को पुनः पुनः दुख देते हैं । [३१८] ये पापी प्राणों का वियोजन करते हैं । यथार्थ कारण तुम्हें बताऊँगा । अज्ञानी दण्ड से संतप्त कर पूर्वकृत सर्व पापों का स्मरण कराते हैं । [३१९] वे हन्यमान महाभिताप होने पर दुरुपपूर्ण नरक में गिरते हैं, वे दुरुव / माँस भक्षी हो जाते हैं । कर्मवशात् कृमियों द्वारा काटे जाते हैं । [३२०] उनका सम्पूर्ण स्थान सदा तप्त एवं अति दुःखमय है । वे उन्हे बेड़ियों में कैदकर उनके शरीर एवं सिर को छेदित कर अभिताप देते हैं । [३२१] वे उस अज्ञानी के नाक, औठ और कान छुरे से काट देते हैं । जिह्वा को वित्त मात्रा में बाहर निकाल कर तीक्ष्ण शूलों से अभिताप देते हैं । [३२२] वे मूढ़ तल (ताड़ - पत्र) संपुट की तरह संपुटित कर देने पर रात-दिन क्रन्दन करते हैं । तप्त तथा क्षारप्रदिग्ध अङ्गो से मवाद, मांस और रक्त गिरता है । [३२३] यदि तुमने सुना हो, वहाँ पुरुष से भी अधिक प्रभावशाली और ऊँची एक कुम्भी है । वह रक्त और मवाद की पाचक, नव प्रज्वलित अग्नि अभितप्त और रक्त तथा मवाद से पूर्ण है । [३२४] वे उन आर्तस्वरी तथा करुणक्रन्दी अज्ञानी नारकियों को कुम्भी में प्रक्षिप्तकर पकाते हैं । वहाँ पिपासातुर होने पर शीशा एवं ताम्बा पिलाने पर वे आर्तस्वर करते हैं । [३२५] पूर्ववर्ती अधमभवों में हजारोंवार अपने आपको छलकर वे बहुक्रूरकर्मी वहाँ रहते हैं । जैसा कृत्कर्म होता है वैसा ही उसका भार / फल होता है । [३२६] इष्ट-कांत विषयों से विहीन अनार्य कलुषता उपार्जित कर एवं कर्मवशवर्ती होकर कृष्ण-स्पर्शी और दुर्गधित अपवित्र स्थान में निवास करते हैं । ऐसा मैं कहता हूँ । अध्ययन - ५ उद्देशक - २ [३२७] अब मैं शाश्वत दुःखधर्मो द्वितीय नरक के सम्बन्ध में यथातथ्य कहूँगा अज्ञानी जैसे दुष्कर्म करते वैसे ही पूर्वकृत कर्मों का वेदन करते हैं । [३२८ ] हाथ और पैर बांधकर उनका पेट छुरे एवं तलवार से काटते हैं । उस अज्ञानी के शरीर को पकड़कर क्षत-विक्षत कर पीठ की स्थिरता को तोड़ देते हैं । [३२९] वे नारक की बाहु समूल काट देते हैं । उसके मुँह को स्थूल गोलों से जलाते हैं । उस अज्ञानी को रथ में योजित कर चलाते हैं एवं रुष्ट होने पर पीठ पर कोड़े मारते हैं ।
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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