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सूत्रकृत-१/५/२/३३०
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[३३०] लौह के समान तप्त, ज्वलित, सज्योति भूमि पर चलते हुए वे दह्यमान नारक करुण क्रन्दन हैं । वे बाण से बींधे जाते है एवं तप्त जूए में योजित किये हैं ।
[३३१] वे उन अज्ञानियों को रुधिर एवं मवाद से सनी लौह पथ की तरह तप्त भूमि पर चलाते हैं । वे उस दुर्गम स्थान पर चलते हुए बैल की तरह आगे ढकेले जाते हैं ।
[३३२] बहुवेदनामय मार्ग पर गमनशील नारकी सम्मुख गिरने वाली शिलाओं से मारे जाते हैं । सन्तापिनी नामक चिरस्थित एक कुम्भी है, जहाँ असाधु कर्मी संतप्त होते हैं ।
[३३३] वे नारक को कड़ाही में प्रक्षिप्त कर पकाते हैं । तब वे विदग्धमान ऊपर उछलते लगते हैं । उन्हें द्रोण काक अथवा हिंस्र पशु खा जाते हैं |
[३३४] वहाँ एक अति उच्च निधूम अग्नि स्थान है । वहाँ वे शोक-तप्त करुण क्रन्दन करते हैं | बकरे की तरह उनके सिर को नीचा कर खण्ड-खण्ड कर देते हैं ।
[३३५] वहाँ खण्ड-खण्ड में विभक्त उन जीवों को लौह चंचुक पक्षीगण खा जाते हैं । जिसमें पापचेता प्रजा पीड़ित की जाती है ऐसी संजीवनी भूमि चिरस्थितिवाली है ।
[३३६] बेबशर्ती नारक को प्राप्तकर श्वापदवत् तीक्ष्ण शूलों से पीड़ित करते हैं । वे शूल विद्ध करुण रुदन करते हैं । वे एकान्त दुःखी तथा द्विविध ग्लान होते हैं ।
[३३७] नरक में सदा प्रज्वलित विशाल-वध स्थल है । जिसमें बिना काष्ठ अग्नि जलती है । वहाँ बहुक्रूरकर्मी निवास करते हैं, कुछ चिरस्थित नारक उच्च क्रन्दन करते हैं ।
[३३८] वे महती चिता का समारम्भकर करुण क्रन्दी नारकों को उसमें फेंक देते हैं । वहाँ अग्नि में सिंचित घी की तरह अशुभकर्मी नारक पिघल जाता है ।
[३३९] वह सम्पूर्ण स्थान सदा तप्त, अति दुःखधर्मी है । जहाँ हाथ पैर बांधकर वे शत्रु की तरह डंडो से पीटते हैं ।
[३४०] अज्ञानी की पीठ प्रहार से भग्न की जाती है और शिर लौह घन से भेदित होता हैं । वे भिन्न देही फलक की तरह तप्त आरों से नियोजित किये जाते हैं ।
[३४१] उस असाधुकर्मी रूद्र के बाण चुभाकर वे उससे हस्ति योग्य भार वहन कराते हैं । उसकी पीठ पर एक, दो या तीन नरकपाल बैठकर मर्म स्थान को बीध डालते हैं ।
[३४२] वे अज्ञानी को प्रविजल एवं कंटकाकीर्ण भूमि पर बलात् चलाते हैं । विविध बन्धनों से बाँधते हैं । मुर्छित होने पर उन्हें कोटवलि की तरह फेंक देते हैं ।
[३४३] नारकीय अन्तरीक्ष में महाभितप्त वैतालिक नामक पर्वत है, वहाँ बहुकुरकर्मी नारकीय जीव हजारो बार क्षतविक्षत होते है ।
[३४४] रात-दिन परितप्तमान वे दुष्कृतकारी पीड़ित होकर क्रन्दन करते हैं । वे उस एकान्त कूट, विस्तृत और विषम नरक में बाँधे जाते हैं ।
[३४५] पूर्व के शत्रु रुष्ट होकर मुद्गल और मूसल लेकर उन्हें भग्न करते हैं । वे भिन्नदेवी रुधिर वमन करते हुए अधोमुख होकर भूमि पर गिर जाते हैं ।
[३४६] सदा कुपित, बुभुक्षित, धृष्ट और विशालकाय, श्रृगाल एक दूसरे से स्पृष्ट एवं श्रृङ्खलावद्ध बहुक्रूरकर्मी नारकों को खा जाते हैं ।
[३४७] अति दूर्ग, पंकिल और अग्नि के ताप से पिघले हुए लौह के समान तप्त जल युक्त सदाज्वला नदी है । वे उस अतिदूर्गम नदी में प्रवाहमान एकाकी ही तैरते हैं ।