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सूत्रकृत-१/४/२/२९८
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[२९८] विशुद्ध लेश्यी, मेघावी, ज्ञानी परक्रिया (स्त्री-सेवन) न करे । वह अनगार मन, वचन और काया से सभी स्पर्शों को सहन करे ।
[२९९] इस तरह वीर ने कहा है-राग और मोह को धुनने वाला भिक्षु है । इसलिए अध्यात्म-विशुद्ध सुविमुक्त भिक्षु मोक्ष अनुष्ठान में प्रवृत्त रहे ।
अध्ययन-४ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् अनुवाद पूर्ण (अध्ययन-५ नरकविभक्ति)
उद्देशक-१ [३००] मैंने केवली महर्षि से पूछा कि नरक में क्या अभिताप है । मुने ! मैं इस तथ्य से अनभिज्ञ हूं आप अभिज्ञ हैं । अतः कहें कि अज्ञानी नरक में कैसे जाते हैं ।
[३०१] मेरे द्वारा ऐसा पूछने पर महानुभाव, आशुप्रज्ञ, काश्यप ने यह कहा कि यह दूर्ग/विषम एवं दुःखदायी है । जिसमें दीन एवं दुराचारी जीव रहते हैं, मैं प्रवेदित करूँगा ।
३०२] इस संसार में कुछ जीवितार्थी मूढ़ जीव रौद्र पाप कर्म करते हैं, वे घोर, सघन अन्धकारमय, तीव्र सन्तप्त नरक में गिरते हैं ।
[३०३] जो आत्म-सुख के निमित्त त्रस और स्थावर जीवों की तीव्र हिंसा करता है, भेदन करता है, अदत्ताहारी है और सेवनीय का किंचित् अभ्यास नहीं करता है ।
[३०४] प्रमादी अनेक प्राणियों का अतिपाती, अनिवृत्त एवं अज्ञानी आघात पाता है । अन्तकाल में नीने रात्रि की ओर जाता है और अधोशिर होकर नरक में उत्पन्न होता है ।
[३०५] हनन करो, छेदन करो, भेदन करो, जलाओ-परमाधर्मियों के ऐसे शब्द सुनकर वे नैरयिक भय से असंज्ञी हो जाते हैं और आकांक्षा करते हैं कि हम किस दिशा में चले ।
[३०६] वे प्रज्वलित अङ्गार राशि के समान ज्योतिमान् भूमि पर चलते हैं, दह्यमान करुण क्रन्दन करते हैं । वहाँ चिरकाल तक रहते हैं ।
[३०७] तुमने क्षुरे जैसी तीक्ष्ण श्रोता अति दुर्गम वैतरणी नदी का नाम सुना होगा । बाणों से छेदित एवं शक्ति से हन्यमान वे दुर्गम वैतरणी नदी में तैरते हैं ।
[३०८] वहाँ क्रूरकर्मी नौका के निकट आते ही उन स्मृति विहीन जीवों के कण्ठ कील से बींधते हैं । अन्य उन्हें दीर्ध शूलों और त्रिशूलों से बांधकर गिरा देते हैं ।
[३०९] कुछ जीवों के गले में शिला बांधकर उन्हें गहरे जल में डूबो देते हैं । फिर कलम्बु पुष्प समान लाल गर्म बालु में और मुर्मराग्नि में लोट-पोट करते हैं, पकाते हैं ।
[३१०] महासंतापकारी, अन्धकाराच्छादित, दुस्तर तथा सुविशाल असूर्य नामक नरक है जहाँ उर्ध्व, अधो एवं तिर्यक दिशाओं में अग्नि धधकती रहती है ।
[३११] जिस गुफा में लुप्तप्रज्ञ, अविज्ञायक, सदा करुण एवं ज्वलनशील स्थान के अति दुःख को प्राप्तकर नारक जलने लगता है ।
[३१२] क्रूरकर्मा चतुराग्नि प्रज्वलितकर नारक को अभितप्त करते हैं । वे अभितप्त होकर वहाँ वैसे ही रहते हैं जैसे अग्नि में जीवित मछलियाँ रहती है ।
[३१३] संतक्षण नामक महाभितप्त नरक है, जहाँ अशुभकर्मी नारकियों को हाथ एवं