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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
पर्यालोचन करे तथा समस्त भयों से मुक्त बना हुआ विवेकी पुरुष आगारिक बंधनों का व्युत्सर्ग कर दे, एवं आरम्भ और परिग्रह का त्याग कर दे ।।
[५४२] उस तथाभूत अनन्त (एकेन्द्रियादि जीवों) के प्रति सम्यक् यतनावान् अनुपमसंयमी आगमज्ञ विद्वान् एवं आगमानुसार एषणा करनेवाले भिक्षु को देखकर मिथ्यादष्टि असभ्य वचनों के तथा पत्थर आदि प्रहार से उसी तरह व्यथित कर देते हैं जिस तरह संग्राम में वीर योद्धा, शत्रु के हाथी को बाणों की वर्षा से व्यथित कर देता है ।
[५४३] असंस्कारी एवं असभ्य जनों द्वारा कथित आक्रोशयुक्त शब्दों तथा-प्रेरित शीतोष्णादि स्पर्शों से पीड़ित ज्ञानवान भिक्षु प्रशान्तचित्त से सहन करे । जिस प्रकार वायु के प्रबल वेग से भी पर्वत कम्पायमान नहीं होता, वैसे मुनि भी विचलित न हो ।
[५४४] माध्यमस्थभाव का अवलम्बन करता हुआ वह मुनि कुशल-गीतार्थ मुनियों के साथ रहे । त्रस एवं स्थावर सभी प्राणियों को दुःख अप्रिय लगता है । अतः उन्हें दुःखी देखकर, किसी प्रकार का परिताप न देता हुआ पृथ्वी की भाँति सब प्रकार के परीषहोपसर्गों को सहन करने वाला महामुनि त्रिजगत्-स्वभाववेत्ता होता है । इसी कारण उसे सुश्रमण कहा गया है ।
[५४५] अनुत्तर श्रमणधर्मपद में प्रवृत्ति करने वाला जो विद्वान्-कालज्ञ एवं विनीत मुनि होता है, उस तृष्णारहित, धर्मध्यान में संलग्न समाहित- मुनि के तप, प्रज्ञा और यश अग्निशिखा के तेज की भाँति निरंतर बढ़ते रहते हैं ।
[५४६] षट्काय के त्राता, अनन्त ज्ञानादि से सम्पन्न राग-द्वेष विजेता, जिनेन्द्र भगवान् से सभी एकेन्द्रियादि भावदिशाओं में रहने वाले जीवों के लिए क्षेम स्थान, कर्म-बन्धन से दूर करने में समर्थ महान् गुरु- महाव्रतों का उनके लिए निरूपण किया है । जिस प्रकार तेज तीनों दिशाओं के अन्धकार को नष्ट करके प्रकाश कर देता है, उसी प्रकार महाव्रत रूप तेज भी अन्धकाररूप कर्मसमूह को नष्ट करके प्रकाशक वन जाता है ।
[५४७] भिक्षु कर्म या रागादि निबन्धनजनक गृहपाश से बंधे हुए गृहस्थों के साथ आबद्ध- होकर संयम में विचरण करे तथा स्त्रियों के संग का त्याग करके पूजा-सत्कार आदि लालसा छोड़े । इहलोक तथा परलोक में निस्पृह होकर रहे । कामभोगों के कटुविपाक का देखने वाला पण्डित मुनि मनोज्ञ-शब्दादि काम-गुणों को स्वीकार न करे ।
[५४८] तथा सर्वसंगविमुक्त, परिज्ञा आचरण करने वाले, धृतिमान- दुःखों को सम्यक्प्रकार से सहन करने में समर्थ, भिक्षु के पूर्वकृत कर्ममल उसी प्रकार विशुद्ध हो जाते हैं, जिस प्रकार अग्नि द्वारा चांदी का मैल अलग हो जाता है ।
[५४९] जैसे सर्प अपनी जीर्ण त्वचा-कांचली को त्याग कर उससे मुक्त हो जाता है, वैसा ही जो भिक्षु परिज्ञा-सिद्धान्त में प्रवृत्त रहता है, लोक सम्बन्धी आशंसा से रहित, मैथुनसेवन से उपरत तथा संयम में विचरण करता, वह नरकादि दुःखशय्या या कर्म बन्धनो से मुक्त हो जाता है ।
[५५०] कहा है-अपार सलिल-प्रवाह वाले समुद्र को भुजाओं से पार करना दुस्तर है, वैसे ही संसाररूपी महासमुद्र को भी पार करना दुस्तर है । अतः इस संसार समुद्र के स्वरूप को जानकर उसका परित्याग कर दे । इस प्रकार पण्डित मुनि कर्मों का अन्त करने वाला