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आचार-२/३/१५/-/५४०
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समुत्पन्न होता है, भिक्षु उनका परित्याग करे । अतः नासिका से जीव मनोज्ञ-अमनोज्ञ सभी प्रकार के गन्धों को सूँघता है, किन्तु प्रबुद्ध भिक्षु को उन पर आसक्त, यावत् अपने आत्मभाव का विनाश नहीं करना चाहिए ।
इसके अनन्तर चौथी भावना यह है जिह्वा से जीव मनोज्ञ - अमनोज्ञ रसों का आस्वादन करता है, किन्तु भिक्षु को चाहिए कि वह मनोज्ञ अमनोज्ञ रसों में न आसक्त हो, न रागभावाविष्ट हो, यावत् अपने आत्मभाव का घात करे । केवली भगवान् का कथन है कि जो निर्ग्रन्थ मनोज्ञ-अमनोज्ञ रसों में आसक्त, यावत् अपना आत्मभान खो बैठता है, वह शान्ति नष्ट कर देता है, यावत् भ्रष्ट हो जाता है । ऐसा तो हो नहीं सकता कि रस जिह्वाप्रदेश में आए और वह उसको चखे नहीं; किन्तु उन रसों के प्रति जो राग-द्वेष उत्पन्न होता है, भिक्षु उसका परित्याग करे । अतः जिह्वा से जीव मनोज्ञ-अमनोज्ञ सभी प्रकार के रसों का आस्वादन करता है, किन्तु भिक्षु को उनमें आसक्त, यावत् आत्मभाव का विघात नहीं करना चाहिए । पंचम भावना यों है- स्पर्शनेन्द्रिय से जीव मनोज्ञ - अमनोज्ञ स्पर्शो का संवेदन करता है, किन्तु भिक्षु उन मनोज्ञामनोज्ञ स्पर्शो में न आसक्त हो, न आरक्त हो, न गृद्ध हो, न मोहितमूर्च्छित और अत्यासक्त हो, और न ही इष्टानिष्ट स्पर्शो में राग-द्वेष करके अपने आत्मभाव का नाश करे । केवली भगवान् कहते हैं जो निर्ग्रन्थ मनोज्ञ - अमनोज्ञ स्पर्शो को पाकर आसक्त, यावत् आत्मभाव का विघात कर बैठता है, वह शान्ति को नष्ट कर डालता है, शान्ति भंग करता है, तथा स्वयं केवलीप्ररूपित शान्तिमय धर्म से भ्रष्ट हो जाता है ।
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स्पर्शेन्द्रिय विषय प्रदेश में आए हुए स्पर्श का संवेदन न करना किसी तरह संभव नहीं है, अतः भिक्षु उन मनोज्ञ - अमनोज्ञ स्पर्शो को पाकर उत्पन्न होनेवाले राग या द्वेष का त्याग करे, यही अभीष्ट है । अतः स्पर्शेन्द्रिय से जीव प्रिय-अप्रिय अनेक स्पर्शों का संवेदन करता है; किन्तु भिक्षु को उन पर आसक्त, यावत् अपने आत्मभाव का विघात नहीं करना चाहिए । इस प्रकार पंच भावनाओं से विशिष्ट तथा साधक द्वारा स्वीकृत परिग्रह - विरमण रूप पंचम महाव्रत का काया से सम्यक् स्पर्श करने, पालन करने, स्वीकृत महाव्रत को पार लगाने, कीर्तन करने तथा अन्त तक उसमें अवस्थित रहने पर भगवदाज्ञा के अनुरूप आराधक हो जाता है । भगवन् ! यह है - परिग्रह - विरमणरूप पंचम महाव्रत !
इन (पूर्वोक्त) पांच महाव्रतों और उनकी पच्चीस भावनाओं से सम्पन्न अनगार यथाश्रुत, यथाकल्प और यथामार्ग, इनका काया से सम्यक् प्रकार से स्पर्श कर, पालन कर, इन्हें पार लगाकर, इनके महत्त्व का कीर्तन करके भगवान् की आज्ञा के अनुसार इनका आराधक बन जाता है । ऐसा मैं कहता हूँ ।
चूलिका-३ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् अनुवाद पूर्ण
चूलिका-४
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अध्ययन- १६ विमुक्ति
[५४१] संसार के समस्त प्राणी जिन शरीर आदि में आत्माएँ आवास प्राप्त करती हैं, सब स्थान अनित्य हैं । सर्वश्रेष्ठ मौनीन्द्र प्रवचन में कथित यह वचन सुनकर गहराई से