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________________ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद आसन आदि का सेवन न करे । केवली भगवान् कहते हैं जो निर्ग्रन्थ स्त्री-पशु- नपुंसक से संसक्त शय्या और आसन आदि का सेवन करता है, वह शान्तिरूप चारित्र को नष्ट कर देता है, यावत् भ्रष्ट हो जाता है । इसलिए निर्ग्रन्थ को स्त्री- पशु नपुंसक संसक्त शय्या और आसन आदि का सेवन नहीं करना चाहिए । १४६ इस प्रकार इन पंच भावनाओं से विशिष्ट एवं स्वीकृत मैथुन- विरमण रूप चतुर्थ महाव्रत का सम्यक् प्रकार से काया से स्पर्श करने यावत् भगवदाज्ञा के अनुरूप सम्यक् आराधक हो जाता है । भगवन् ! यह मैथुन - विरमणरूप चतुर्थ महाव्रत है । इसके पश्चात् हे भगवान् ! मैं पांचवें महाव्रत को स्वीकार करता हूँ । पंचम महाव्रत के संदर्भ में मैं सब प्रकार के परिग्रह का त्याग करता हूँ । आज से मैं थोड़ा या बहुत, सूक्ष्म या स्थूल, सचित्त या अचित्त किसी भी प्रकार के परिग्रह को स्वयं ग्रहण नही करूँगा, न दूसरों से ग्रहण कराऊँगा, और न परिग्रहण करने वालों का अनुमोदन करूँगा । यावत् परिग्रह का व्युत्सर्ग करता हूँ', तक का सारा वर्णन पूर्ववत् समझना । उस पंचम महाव्रत की पांच भावनाएँ ये हैं - उन में से प्रथम भावना यह है- श्रोत से यह जीव मनोज्ञ तथा अनमोज्ञ शब्दों को सुनता है, परन्तु वह उसमें आसक्त न हो, रागभाव न करे, गृद्ध न हो, मोहित न हो, अत्यन्त आसक्ति न करे । केवली भगवान् कहते हैं - जो साधु मनोज्ञ-अमनोज्ञ शब्दों में आसक्त होता है, रागभाव रखता है, यावत् अत्यधिक आ हो जाता है, वह शान्तिरूप चारित्र का नाश करता है, शान्ति को भंग करता है, शान्तिरूप प्रज्ञप्त धर्म से भ्रष्ट हो जाता है । कर्ण प्रदेश में आए हुए शब्द-श्रवण न करना शक्य नहीं है, किन्तु उनके सुनने पर उनमें जो राग-द्वेष की उत्पत्ति होती है, भिक्षु उसका परित्याग करे । अतः श्रोत से जीव प्रिय और अप्रिय सभी प्रकार के शब्दों को सुनकर उनमें आसक्त आरक्त, गृद्ध, मोहित, मूर्च्छित एवं अत्यासक्त न हो और न राग-द्वेष द्वारा अपने आत्मभाव को नष्ट न करे । इसके अनन्तर द्वितीय भावना है-चक्षु से जीव मनोज्ञ-अमनोज्ञ सभी प्रकार के रूपों को देखता है, किन्तु साधु मनोज्ञ - अमनोज्ञ रूपों में न आसक्त हो, न आरक्त हो, यावत् आत्मभाव को नष्ट करे । केवली भगवान् कहते हैं - जो निर्ग्रन्थ मनोज्ञ - अमनोज्ञ रूपों को देखकर आसक्त, यावत् अपने आत्मभाव को खो बैठता है, वह शान्तिरूप चारित्र को विनष्ट करता है, यावत् भ्रष्ट हो जाता है । नेत्रों के विषय में बने हुए रूप को न देखना तो शक्य नहीं है, वे दिख ही जाते हैं, किन्तु उनके देखने पर जो राग-द्वेष उत्पन्न होता है, भिक्षु उनका परित्याग करे । अतः नेत्रों से जीव मनोज्ञ रूपों का देखता है, किन्तु निर्ग्रन्थ भिक्षु उनमें आसक्त यावत् अपने आत्मभाव का विघात न करे । 1 इसके बाद तीसरी भावना है - नासिका से जीव प्रिय और अप्रिय गन्धों का सूँघता है, किन्तु भिक्षु मनोज्ञ या अमनोज्ञ गंध पाकर न आसक्त हो, न अनुरक्त हो यावत् अपने आत्मभाव का विघात न करे । केवली भगवान कहते हैं जो निर्ग्रन्थ मनोज्ञ या अमनोज्ञ गंध पाकर आसक्त, यावत् अपने आत्मभाव को खो बैठता है, वह शान्तिरूप चारित्र को नष्ट कर डालता है, यावत् भ्रष्ट हो जाता है । ऐसा नहीं हो सकता है कि नासिका - प्रदेश के सान्निध्य में आए हुए गन्ध के परमाणु पुद्गल सूँघे न जाएँ, किन्तु उनको सूँघने पर उनमें जो राग-द्वेष
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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