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आचार-२/३/१५/-/५३८
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मर्यादित अवग्रह की याचना करता है, वह निर्ग्रन्थ है, बिना विचारे परिमित अवग्रह की याचना करने वाला नहीं । केवली भगवान् का कथन है-बिना विचार किये जो साधर्मिकों से परिमित अवग्रह की याचना करता है, उसे साधर्मिकों का अदत्त ग्रहण करने का दोष लगता है । अतः जो साधक साधर्मिकों से भी विचारपूर्वक मर्यादित अवग्रह की याचना करता है, वही निर्ग्रन्थ कहलाता है । बिना विचारे साधर्मिकों से मर्यादित अवग्रहयाचक नहीं ।
इस प्रकार पंच भावनाओं से विशिष्ट एवं स्वीकृत अदत्तादान-विरमणरूप तृतीय महाव्रत का सम्यक् प्रकार से काया से स्पर्श करने, यावत् अंत तक अवस्थित रहने पर भगवदाज्ञा का सम्यक् आराधक हो जाता है ।
भगवन ! यह अदत्तादान-विरमणरूप तृतीय महाव्रत है ।
[५३९] इसके पश्चात् भगवन् ! मैं चतुर्थ महाव्रत स्वीकार करता हूँ, समस्त प्रकार के मैथुन-विषय सेवन का प्रत्याख्यान करता हूँ । देव-सम्बन्धी, मनुष्य-सम्बन्धी और तिर्यञ्चसम्बन्धी मैथुन का स्वयं सेवन नहीं करूँगा, न दूसरे से मैथुन-सेवन कराऊँगा और न ही मैथुनसेवन करनेवाले का अनुमोदन करूँगा । शेष समस्त वर्णन अदत्तादान-विरमण महाव्रत में यावत् व्युत्सर्ग करता हूँ', तक के पाठ अनुसार समझना ।
उस चतुर्थ महाव्रत की ये पाँच भावनाएँ हैं-उन यह में पहली भावना यह है-निर्ग्रन्थ साधु बार-बार स्त्रियों की काम-जनक कथा न कहे । केवली भगवान् कहते हैं-बार-बार स्त्रियों की कथा कहने वाला निर्ग्रन्थ साधु शान्तिरूप चारित्र का और शान्तिरूप ब्रह्मचर्य का भंग करने वाला होता है, तथा शान्तिरूप केवली-प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है । अतः निर्ग्रन्थ साधु को स्त्रियों की कथा बार-बार नहीं करनी चाहिए ।
___ इसके पश्चात् दूसरी भावना यह है-निर्ग्रन्थ साधु काम-राग से स्त्रियों की मनोहर एवं मनोरम इन्द्रियों को सामान्य रूप से या विशेषरूप से न देखे । केवली भगवान् कहते हैंस्त्रियों की मनोहर एवं मनोरम इन्द्रियों का कामराग-पूर्वक सामान्य या विशेष रूप से अवलोकन करने वाला साधु शान्तिरूप चारित्र का नाश तथा शान्तिरूप ब्रह्मचर्य का भंग करता है, तथा शान्तिरूप केवली-प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है । अतः निर्ग्रन्थ को स्त्रियों की मनोहर एवं मनोरम इन्द्रियों का कामरागपूर्वक सामान्य या विशेष रूप से अवलोकन नहीं करना चाहिए ।
इसके अनन्तर तीसरी भावना इस प्रकार है कि निर्ग्रन्थ साधु स्त्रियों के साथ की हुई पूर्वरति एवं पूर्व कामक्रीड़ा का स्मरण न करे । केवली भगवान् कहते हैं कि स्त्रियों के साथ में की हुई पूर्वरति पूर्वकृत-कामक्रीड़ा का स्मरण करने वाला साधु शान्तिरूप चारित्र का नाश तथा शान्तिरूप ब्रह्मचर्य का भंग करने वाला होता है तथा शान्तिरूप धर्म से भ्रष्ट हो जाता है । अतः निर्ग्रन्थ साधु स्त्रियों के साथ की हुई पूर्वरति एवं कामक्रीड़ा का स्मरण न करे ।
चौथी भावना है-निर्ग्रन्थ अतिमात्रा में आहार-पानी का सेवन न करे, और न ही सरस स्निग्ध-स्वादिष्ट भोजन का उपभोग करे । केवली भगवान् कहते हैं कि जो निर्ग्रन्थ प्रमाण से अधिक आहार-पानी का सेवन करता है तथा स्निग्ध-सरस-स्वादिष्ट भोजन करता है, वह शान्तिरूप चारित्र का नाश करने वाला, यावत् भ्रष्ट हो सकता है । इसलिए अतिमात्रा में आहार-पानी का सेवन या सरस स्निग्धभोजन नहीं करना चाहिए ।
इसके अनन्तर पंचम भावना है-निर्ग्रन्थ स्त्री, पशु और नपुंसक से संसक्त शय्या और 110