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आचार-२/१/७/१/४९२
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यदि ऐसे अवग्रह को जाने, जो गृहस्थों से संसक्त हो, अग्नि और जल से युक्त हो, जिसमें स्त्रियाँ, छोटे बच्चे अथवा क्षुद्र रहते हों, जो पशुओं और उनके योग्य खाद्य-सामग्री से भरा हो, प्रज्ञावान साधु के लिए ऐसा आवास स्थान निर्गमन-प्रवेश, वाचना यावत् धर्मानुयोगचिन्तन के योग्य नहीं है । ऐसा जानकर उस प्रकार के उपाश्रय की अवग्रह-अनुज्ञा ग्रहण नही करनी चाहिए । जिस अवग्रह को जाने कि उसमें जाने का मार्ग गृहस्थ के घर के बीचोंबीच से है या गृहस्थ के घर से बिल्कुल सटा हुआ है तो प्रज्ञावान् साधु को ऐसे स्थान में निकलना
और प्रवेश करना तथा वाचन यावत् धर्मानुयोग-चिन्तन करना उचित नहीं है, ऐसा जानकर उस प्रकार के उपाश्रय की अवग्रह-अनुज्ञा ग्रहण नहीं करनी चाहिए ।
ऐसे अवग्रह को जाने, जिसमें गृहस्वामी यावत् उसकी नौकारानियाँ परस्पर एक दूसरे पर आक्रोश करती हों, लड़ती -झगड़ती हों तथा परस्पर एक दूसरे के शरीर पर तेल, घी आदि लगाते हों, इसी प्रकार स्नानादि, जल से गात्रसिंचन आदि करते हों या नग्नस्थित हों इत्यादि वर्णन शय्याऽध्ययन के आलापकों की तरह यहाँ समझ लेना चाहिए । इतना ही विशेष है कि वहाँ वह वर्णन शय्या के विषय में हैं, यहाँ अवग्रह के विषय में है । ___साधु या साध्वी ऐसे अवग्रह-स्थान को जाने, जिसमें अश्लील चित्र आदि अंकित या आकीर्ण हों, ऐसा उपाश्रय प्रज्ञावान् साधु के निर्गमन-प्रवेश तथा वाचना से धर्मानुयोग चिन्तन के योग्य नहीं है । ऐसे उपाश्रय की अवग्रह-अनुज्ञा एक या अधिक बार ग्रहण नहीं करनी चाहिए । यही वास्तव में साधु या साध्वी का समग्र सर्वस्व है, जिसे सभी प्रयोजनों एवं ज्ञानादि से युक्त, एवं समितियों से समित होकर पालन करने के लिए वह सदा प्रयत्नशील है । - ऐसा मैं कहता हूँ।
| अध्ययन-७ उद्देशक-२ [४९३] साधु धर्मशाला आदि स्थानों में जाकर, ठहरने के स्थान को देखभालकर विचारपूर्वक अवग्रह की याचना करे । वह अवग्रह की अनुज्ञा मांगते हुए उक्त स्थान के स्वामी या अधिष्ठाता से कहे कि आपकी इच्छानुसार - जितने समय तक और जितने क्षेत्र में निवास करने की आप हमें अनुज्ञा देंगे, उतने समय तक और उतने ही क्षेत्र में हम ठहरेंगे । हमारे जितने भी साधर्मिक साधु यहाँ आयेंगे, उनके निवास के लिए भी जितने काल और जितने
क्षेत्र तक इस स्थान में ठहरने की आपकी अनुज्ञा होगी, उतने काल और क्षेत्र में वे ठहरेंगे । नियत अवधि के पश्चात् वे और हम यहाँ से विहार कर देंगे ।
उक्त स्थान के अवग्रह की अनुज्ञा प्राप्त हो जाने पर साधु उसमें निवास करते समय क्या करे ? वहाँ (ठहरे हए) शाक्यादि श्रमणों या ब्राह्मणों के दण्ड, छत्र, यावत् चर्मच्छेदनक आदि उपकरण पड़े हों, उन्हें वह भीतर से बाहर न निकाले और न ही बाहर से अन्दर रखे, तथा किसी सोए हुए श्रमण या ब्राह्मण को न जगाए । उनके साथ किंचित् मात्र भी अप्रीतिजनक या प्रतिकूल व्यवहार न करे, जिससे उनके हृदय को आघात पहुँचे ।
[४९४] वह साधु या साध्वी आम के वन में ठहरना चाहे तो उस आम्रवन का जो स्वामी या अधिष्ठाता हो, उससे अवग्रह की अनुज्ञा प्राप्त करे उतने समय तक, उतने नियत क्षेत्र में आम्रवन में ठहरेंगे, इसी बीच हमारे समागत साधर्मिक भी इसी का अनुसरण करेंगे ।