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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
पुराना वस्त्र किसी दूसरे साधु को न दे और न किसी से उधार वस्त्र ले, और न ही वस्त्र की परस्पर अदलाबदली करे । दसरे साध के पास जाकर ऐसा न कहे-'आयुष्मन् श्रमण ! क्या तुम मेरे वस्त्र को धारण करना या पहनना चाहते हो ?" इसके अतिरिक्त उस सुदृढ़ वस्त्र को टुकड़े-टुकड़े करके फेंके भी नहीं, साधु उसी प्रकार का वस्त्र धारण करे, जिसे गृहस्थ या अन्य व्यक्ति अमनोज्ञ समझे
(वह साधु) मार्ग में सामने से आते हुए चोरों को देखकर उस वस्त्र की रक्षा के लिए चोरों से भयभीत होकर साधु उन्मार्ग से न जाए अपितु जीवन-मरण के प्रति हर्ष-शोक रहित, बाह्य लेश्या से मुक्त, एकत्वभाव में लीन होकर देह और वस्त्रादि का व्युत्सर्ग करके समाधिभाव में स्थिर रहे । इस प्रकार संयमपूर्वक ग्रामानुग्राम विचरण करे ।
ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए साधु या साध्वी के मार्ग के बीच में अटवीवाला लम्बा मार्ग हो, और वह जाने के इस अटवीबहुल मार्ग में बहुत से चोर वस्त्र छीनने के लिए इकट्ठे होकर आते हैं, तो साधु उनसे भयभीत होकर उन्मार्ग से न जाए, किन्तु देह और वस्त्रादि के प्रति अनासक्त यावत् समाधिभाव में स्थिर होकर संयमपूर्वक ग्रामानुग्राम विचरण करे ।
ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए साधु या साध्वी के मार्ग में चोर इकट्ठे होकर वस्त्रहरण, करने के लिये आ जाएं और कहें कि आयुष्मन् श्रमण ! वह वस्त्र लाओ, हमारे हाथ में दे दो, या हमारे सामने रख दो, तो जैसे ईर्याऽध्ययन में वर्णन किया है, उसी प्रकार करे । इतना विशेष है कि यहाँ वस्त्र का अधिकार है ।
यही वस्तुतः साधु-साध्वी का सम्पूर्ण ज्ञानादि आचार है । जिसमें सभी अर्थों में ज्ञानादि से सहित होकर सदा प्रयत्नशील रहे । - ऐसा मैं कहता हूँ ।
(अध्ययन-६ पात्रैषणा)
उद्देशक-१ [४८६] संयमशील साधु या साध्वी यदि पात्र ग्रहण करना चाहे तो जिन पात्रों को जाने वे इस प्रकार हैं-तुम्बे का पात्र, लकड़ी का पात्र और मिट्टी का पात्र । इन तीनों प्रकार के पात्रों को साधु ग्रहण कर सकता है । जो निर्ग्रन्थ तरुण बलिष्ठ स्वस्थ और स्थिर-सहनवाला है, वह इस प्रकार का एक ही पात्र रखे, दूसरा नहीं । वह साधु, साध्वी अर्द्धयोजन के उपरान्त पात्र लेने के लिएजाने का मन में विचार न करे ।
साधु या साध्वी को यदि पात्र के सम्बन्ध में यह ज्ञात हो जाए कि किसी भावुक गृहस्थ ने धन के सम्बन्ध से रहित निर्ग्रन्थ साधु को देने की प्रतिज्ञा (विचार) करके किसी एक साधर्मिक साधु के उद्देश्य से समारम्भ करके पात्र बनवाया है, यावत् (पिंडेषणा समान) अनेषणीय समझकर मिलने पर भी न ले । जैसे यह सूत्र एक सधार्मिक साधु के लिये है, वैसे ही अनेक साधर्मिक साधुओं, एक साधर्मिणी साध्वी एवं अनेक साधर्मिणी साध्वियों के सम्बन्ध में भी शेष तीन आलापक समझ लेने चाहिए | और पाँचवा आलापक (पिण्डैषणा अध्ययन में) जैसे बहुत से शाक्यादि श्रमण, ब्राह्मण, आदि को गिन गिन कर देने के सम्बन्ध में है, वैसे ही यहाँ भी समझ लेना चाहिए ।
यदि साधु-साध्वी यह जाने के असंयमी गृहस्थ ने भिक्षुओं को देने की प्रतिज्ञा करके