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आचार- २/१/५/१/४८२
अधिक धूप में सुखाए ।
यही उस साधु या साध्वी का सम्पूर्ण आचार है, जिसमें सभी अर्थों एवं ज्ञानादि आचार से सहित होकर वह सदा प्रयत्नशील रहे ।
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ऐसा मैं कहता हूँ ।
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अध्ययन - ५ उद्देशक - २
[४८३] साधु या साध्वी वस्त्रैषणा समिति के अनुसार एषणीय वस्त्रों की याचना करे, और जैसे भी वस्त्र मिलें और लिए हों, वैसे ही वस्त्रों को धारण करे, परन्तु न उन्हें धोए, न रंगे और न ही धोए हुए तथा रंगे हुए वस्त्रों को पहने । उन साधारण से वस्त्रों को न छिपाते हुए ग्राम-ग्रामान्तर में समतापूर्वक विचरण करे । यही वस्त्रधारी साधु का समग्र है ।
वह साधु या साध्वी, यदि गृहस्थ के घर में आहार- पानी के लिए जाना चाहे तो समस्त कपड़े साथ में लेकर उपाश्रय से निकले और गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रवेश करे । इसी प्रकार बस्ती के बाहर स्वाध्यायभूमि या शौचार्थ स्थंडिलभूमि में जाते समय एवं ग्रामानुग्राम विहार करते समय सभी वस्त्रों को साथ लेकर विचरण करे ।
यदि वह यह जाने कि दूर-दूर तक तीव्र वर्षा होती दिखाई दे रही है तो यावत् पिण्डैषणा - समान सब आचरण करे । अन्तर इतना ही है कि वहाँ समस्त उपधि साथ में लेकर जाने का विधि - निषेध है, जबकि यहाँ केवल सभी वस्त्रों को लेकर जाने का विधि-निषेध है । [४८४] कोई साधु मुहूर्त आदि नियतकाल के लिए किसी दूसरे साधु से प्रातिहारिक वस्त्र की याचना करता है और फिर किसी दूसरे ग्राम आदि में एक दिन, दो दिन, तीन दिन, चार दिन अथवा पाँच दिन तक निवास करके वापस आता है । इस बीच वह वस्त्र उपहत हो जाता है । लौटाने पर वस्त्र का स्वामी उसे वापिस लेना स्वीकार नहीं करे, लेकर दूसरे साधु को नहीं देवे; किसी को उधार भी नहीं देवे, उस वस्त्र के बदले दूसरा वस्त्र भी नहीं लेवे, दूसरे के पास जाकर ऐसा भी नहीं कहे कि - आयुष्मन् श्रमण ! आप इस वस्त्र को धारण करना चाहते हैं, इसका उपभोग करना चाहते हैं ? उस दृढ़ वस्त्र के टुकड़े-टुकड़े करके परिष्ठापन भी नहीं करे । किन्तु उस उपहत वस्त्र को वस्त्र का स्वामी उसी उपहत करने वाले साधु को दे, परन्तु स्वयं उसका उपभोग न करे ।
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वह एकाकी साधु इस प्रकार की बात सुनकर उस पर मन में यह विचार करे कि सबका कल्याण चाहने वाले एवं भय का अन्त करने वाले ये पूज्य श्रमण उस प्रकार के उपहत वस्त्रों को उन साधुओं से, जो कि इनसे मुहूर्त भर आदि काल का उद्देश्य करके प्रातिहारिक ले जाते हैं, और एक दिन से लेकर पाँच दिन तक किसी ग्राम आदि में निवास करके आते हैं, न स्वयं ग्रहण करते हैं, न परस्पर एक दूसरे को देते हैं, यावत् न वे स्वयं उन वस्त्रों का उपयोग करते हैं। इस प्रकार बहुवचन का आलापक कहना चाहिए । अतः मैं भी मुहूर्त आदि का उद्देश करके इनसे प्रातिहारिक वस्त्र माँगकर एक दिन से लेकर पाँच दिन तक ग्रामान्तर में ठहरकर वापस लौट आऊँ, जिससे यह वस्त्र मेरा हो जाएगा । ऐसा विचार करने वाला साधु मायास्थान का स्पर्श करता है, अतः ऐसा विचार न करे ।
[४८५] साधु या साध्वी सुन्दर वर्ण वाले वस्त्रों को विवर्ण न करे, तथा विवर्ण वस्त्रों को सुन्दर वर्ण वाले न करे । 'मैं दूसरा नया वस्त्र प्राप्त कर लूँगा', इस अभिप्राय से अपना