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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
गृहस्थ ने साधु के निमित्त से उसे खरीदा है, धोया है, रंगा है, घिस कर साफ किया है, चिकना या मुलायम बनाया है, संस्कारित किया है, सुवासित किया है और ऐसा वह वस्त्र अभी पुरुषान्तरकृत यावत् दाता द्वारा आसेवित नहीं हुआ है, तो ग्रहण न करे । यदि साधु या साध्वी यह जान जाए कि वह वस्त्र पुरुषान्तरकृत यावत् आसेवित है तो मिलने पर ग्रहण कर सकता है ।
[४७९] साधु-साध्वी यदि ऐसे नाना प्रकार के वस्त्रों को जाने, जो कि महाधन से प्राप्त होने वाले वस्त्र हैं, जैसे कि - आजिनक, श्लक्ष्ण, श्लक्ष्ण कल्याण, आजक, कायक, क्षौमिक दुकूल, पट्टरेशम के वस्त्र, मलयज के सूते से बने वस्त्र, वल्कल तन्तुओं से निर्मित वस्त्र, अंशक, चीनांशुक, देशराग, अमिल, गर्जल, स्फटिक तथा अन्य इसी प्रकार के बहुमूल्य वस्त्र प्राप्त होने पर भी विचारशील साधु उन्हें ग्रहण न करे । साधु या साध्वी यदि चर्म से निष्पन्न ओढने के वस्त्र जाने जैसे कि औद्र, पेष, पेषलेश, स्वर्णरस में लिपटे वस्त्र, सोने कही कान्ति वाले वस्त्र, सोने के रस की पट्टियाँ दिये हुए वस्त्र, सोने के पुष्प गुच्छों से अंकित, सोने के तारों से जटित और स्वर्ण चन्द्रिकाओं से स्पर्शित, व्याघ्रचर्म, चीते का चर्म, आभरणों से मण्डित, आभरणों से चित्रित ये तथा अन्य इसी प्रकार के चर्म-निष्पन्न वस्त्र प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे ।
[४८०] इन दोषों के आयतनों को छोड़कर चार प्रतिमाओं से वस्त्रैषणा करनी चाहिए । पहली प्रतिमा - वह साधु या साध्वी मन में पहले संकल्प किये हुए वस्त्र की याचना करे, जैसे कि - जांगमिक, भांगिक, सानज, पोत्रक, क्षौमिक या तूलनिर्मित वस्त्र, उस प्रकार के वस्त्र की स्वयं याचना करे अथवा गृहस्थ स्वयं दे तो प्रासुक और एषणीय होने पर ग्रहण करे ।
दूसरी प्रतिमा - वह साधु या साध्वी वस्त्र को पहले देखकर गृह-स्वामी यावत नौकरानी आदि से उसकी याचना करे । आयुष्मन् गृहस्थ भाई ! अथवा बहन ! क्या तुम इन वस्त्रों में से किसी एक वस्त्र को मुझे दोगे/दोगी? इस प्रकार साधु या साध्वी पहले स्वयं वस्त्र की याचना करे अथवा वह गृहस्थ दे तो प्रासुक एवं एषणीय होने पर ग्रहण करे ।
तीसरी प्रतिमा - साधु या साध्वी वस्त्र के सम्बन्ध में जाने, जैसे कि - अन्दर पहनने के योग्य या ऊपर पहनने के योग्य । तदनन्तर इस प्रकार के वस्त्र की याचना करे या गृहस्थ उसे दे तो उस वस्त्र को प्रासुक एवं एषणीय होने पर मिलने पर ग्रहण करे ।
चौथी प्रतिमा - वह साधु या साध्वी उज्झितधार्मिक वस्त्र की याचना करे । जिस वस्त्र को बहुत से अन्य शाक्यादि भिक्षु यावत् भिखारी लोग भी लेना न चाहें, ऐसे वस्त्र की याचना करे अथवा वह गृहस्थ स्वयं ही साधु को दे तो उस वस्तु को प्रासुक और एषणीय जानकर ग्रहण कर ले। इन चारों प्रतिमाओं के विषय में जैसे पिण्डैषणा अध्ययन में वर्णन किया गया है, वैसे ही यहाँ समझ लेना चाहिए ।
कदाचित् इन (पूर्वोक्त) वस्त्र-एषणाओं से वस्त्र की गवेषणा करने वाले साधु को कोई गृहस्थ कहे कि – 'आयुष्मन् श्रमण ! तुम इस समय जाओ, एक मास, या दस या पाँच रात के बाद अथवा कल या परसों आना, तब हम तुम्हें एक वस्त्र देंगे ।' ऐसा सुनकर हृदय में धारण करके वह साधु विचार कर पहले ही कह दे मेरे लिए इस प्रकार का संकेतपूर्वक वचन स्वीकार करना कल्पनीय नहीं है । अगर मुझे वस्त्र देना चाहते हो तो दे दो ।'