SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार-२/१/५/१/४८० ११५ उस साधु के इस प्रकार कहने पर भी यदि वह गृहस्थ यों कहे कि - 'आयुष्मन् श्रमण ! अभी तुम जाओ । थोड़ी देर बाद आना, हम तुम्हें एक वस्त्र दे देंगे ।' इस पर वह पहले मन में विचार करके उस गृहस्थ से कहे मेरे लिए इस प्रकार से संकेतपूर्वक वचन स्वीकार करना कल्पनीय नहीं है । अगर मुझे देना चाहते हो तो इसी समय दे दो ।' साधु के इस प्रकार कहने पर यदि वह गृहस्थ घर के किसी सदस्य को यों कहे कि 'वह वस्त्र लाओ, हम उसे श्रमण को देंगे । हम तो अपने निजी प्रयोजन के लिए बाद में भी समारम्भ करके और उद्देश्य करके यावत् और वस्त्र बनवा लेंगे ।' ऐसा सुनकर विचार करके उस प्रकार के वस्त्र को अप्रासुक एवं अनेषणीय जानकर ग्रहण न करे । कदाचित् गृहस्वामी घर के किसी व्यक्ति से यों कहे कि “वह वस्त्र लाओ, तो हम उसे स्नानीय पदार्थ से, चन्दन आदि उद्धर्तन द्रव्य से, लोघ्र से, वर्ण से, चूर्ण से या पद्म आदि सुगन्धित पदार्थों से, एक बार या बार-बार घिसकर श्रमण को देंगे।" ऐसा सुनकर एवं उस पर विचार करके वह साधु पहले से ही कह दे- तुम इस वस्त्र को स्नानीय पदार्थ से यावत् पद्म आदि सुगन्धित द्रव्यों से आघर्षण या प्रघर्षण मत करो । यदि मुझे वह वस्त्र देना चाहते हो तो ऐसे ही दे दो ।' साधु के द्वारा इस प्रकार कहने पर भी वह गृहस्थ स्नानीय सुगन्धित द्रव्यों से एक बार या बार-बार घिसकर उस वस्त्र को देने लगे तो उस प्रकार के वस्त्र को अप्रासुक एवं अनेषणीय जानकर भी ग्रहण न करे । कदाचित् गृहपति घर के किसी सदस्य से कहे कि “उस वस्त्र को लाओ, हम उसे प्रासुक शीतल जल से या प्रासुक उष्ण जल से एक बार या कई बार धोकर श्रमण को देंगे।" इस प्रकार की बात सुनकर एवं उस पर विचार करके वह पहले ही दाता से कह दे – “इस वस्त्र को तुम प्रासुक शीतल जल से या प्रासुक उष्ण जल से एक बार या कई बार मत धोओ । यदि मुझे इसे देना चाहते हो तो ऐसे ही दे दो ।' इस प्रकार कहने पर भी यदि वह गृहस्थ उस वस्त्र को ठण्डे या गर्म जल से एक बार या कई बार धोकर साधु को देने लगे तो वह उस प्रकार के वस्त्र को अप्रासुक एवं अनेषणीय जानकर मिलने पर भी ग्रहण न करे । यदि वह गृहस्थ अपने घर के किसी व्यक्ति से यों कहे कि “उस वस्त्र को लाओ, हम उसमें से कन्द यावत् हरी निकालकर साधु को देंगे । इस प्रकार की बात सुनकर, उस पर विचार करके वह पहले ही दाता से कह दे – “इस वस्त्र में से कन्द यावत् हरी मत निकालो मेरे लिए इस प्रकार का वस्त्र ग्रहण करना कल्पनीय नहीं है ।" साध के द्वारा इस प्रकार कहने पर भी वह गृहस्थ कन्द यावत् हरी वस्तु को निकाल कर देने लगे तो उस प्रकार के वस्त्र को अप्रासुक एवं अनेषणीय समझ कर प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे । कदाचित् वह गृहस्वामी वस्त्र को दे, तो वह पहले ही विचार करके उससे कहे तुम्हारे ही इस वस्त्र को मैं अन्दर-बाहर चारों ओर से भलीभाँति देलूँगा, क्योंकि केवली भगवान् कहते हैं - वस्त्र को प्रतिलेखना किये बिना लेना कर्मबन्धन का कारण है । कदाचित् उस वस्त्र के सिरे पर कुछ बँधा हो, कोई कुण्डल बँधा हो, या धागा, चाँदी, सोना, मणिरत्न, यावत् रत्नों की माला बँधी हो, या कोई प्राणी, बीज या हरी वनस्पति बँधी हो । इसीलिए तीर्थंकर आदि आप्तपुरुषों ने पहले से ही इस प्रतिज्ञा, हेतु, कारण और उपदेश का निर्देश किया है कि साधु वस्त्रग्रहण से पहले ही उस वस्त्र की अन्दर-बाहर चारों ओर से प्रतिलेखना करे ।
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy