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________________ आचार-२/१/४/२/४७२ ११३ हैं, ये भुट्टों, सिरों या बालियों से रहित हैं, अब ये भुट्टों आदि से युक्त हैं, या धान्य-कणयुक्त हैं । साधु या साध्वी इस प्रकार निरवद्य यावत् जीवोपघात रहित भाषा बोले । [४७३] साधु या साध्वी कई शब्दों को सुनते हैं, तथापि यों न कहे, जैसे कि - यह मांगलिक शब्द है, या यह अमांगलिक शब्द है। इस प्रकार की सावध यावत् जीवोपघातक भाषा न बोले । कभी बोलना हो तो सुशब्द को 'यह सुशब्द है' और दुःशब्द को 'यह दुःशब्द है' ऐसी निखद्य यावत् जीवोपघातरहित भाषा बोले । इसी प्रकार रूपों के विषय में - कृष्ण को कृष्ण, यावत् श्वेत को श्वेत कहे, गन्धों के विषय में सुगन्ध को सुगन्ध और दुर्गन्ध को दुर्गन्ध कहे, रसों के विषय में तिक्त को तिक्त, यावत् मधुर को मधुर कहे, स्पर्शों के विषय में कर्कश को कर्कश यावत उष्ण को उष्ण कहे । [४७४] साधु या साध्वी क्रोध, मान, माया और लोभ का वमन करके विचारपूर्वक निष्ठाभासी हो, सुन-समझ कर बोले, अत्वरितभाषा एवं विवेकपूर्वक बोलने वाला हो और भाषासमिति से युक्त संयत भाषा का प्रयोग करे ।। यही वास्तव में साधु-साध्वी के आचार का सामर्थ्य है, जिसमें वह सभी ज्ञानादि अर्थों से युक्त होकर सदा प्रयत्नशील रहे । -ऐसा मैं कहता हूँ । (अध्ययन-५ वस्त्रैषणा उद्देशक-१ [४७५] साधु या साध्वी वस्त्र की गवेषणा करना चाहते हैं, तो उन्हें वस्त्रों के सम्बन्ध में जानना चाहिए । वे इस प्रकार हैं जांगमिक, भांगिक, सानिक, पोत्रक, लोमिक और तूलकृत । तथा इसी प्रकार के अन्य वस्त्र को भी मुनि ग्रहण कर सकता है । जो निर्ग्रन्थ मुनि तरुण है, समय के उपद्रव से रहित है, बलवान, रोग रहित और स्थिर संहनन है, वह एक ही वस्त्र धारण करे, दूसरा नहीं । जो साध्वी है, वह चार संघाटिका धारण करे उसमें एक, दो हाथ प्रमाण विस्तृत, दो तीन हाथ प्रमाण और एक चार हाथ प्रमाण लम्बी होनी चाहिए । इस प्रकार के वस्त्रों के न मिलने पर वह एक वस्त्र को दूसरे के साथ सिले । [४७६] साधु-साध्वी को वस्त्र-ग्रहण करने के लिए आधे योजन से आगे जाने का विचार करना नहीं चाहिए । [४७७] साधु या साध्वी को यदि वस्त्र के सम्बन्ध में ज्ञात हो जाए कि कोई भावुक गृहस्थ धन के ममत्व से रहित निर्ग्रन्थ साधु को देने की प्रतिज्ञा करके किसी एक साधर्मिक साधु का उद्देश्य रखकर प्राणी, भूत, जीव और सत्वों का समारम्भ करके यावत् (पिण्डैषणा समान) अनेषणीय समझ कर मिलने पर भी न ले । तथा पिण्डैषणा अध्ययन में जैसे बहुत-से साधर्मिक साधु, एक साधर्मिणी साध्वी, बहुत-सी साधर्मिणी साध्वियाँ, एवं बहुत-से शाक्यादि श्रमण-ब्राह्मण आदि को गिन-गिन कर तथा बहुत-से शाक्यादि श्रमण-ब्राह्मणादि का उद्देश्य रखकर जैसे औद्देशिक, क्रीत आदि तथा पुरुषान्तरकृत आदि विशेषणों से युक्त आहार-ग्रहण का निषेध किया गया है, उसी प्रकार यहाँ सारा वर्णन समझ लेना । [४७८] साधु या साध्वी यदि किसी वस्त्र के विषय में यह जान जाए कि असंयमी
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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