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________________ आचार-२/१/३/२/४५८ १०५ दे । उसके पश्चात् वह यतनापूर्वक शास्त्रोक्तविधि से उस जंघा - प्रमाण जल को पार करे । यदि वह यह जाने कि मैं उपधि सहित ही जल से पार हो सकता हूँ तो वह उपकरण सहित पार हो जाए । परन्तु किनारे पर आने के बाद जब तक उसके शरीर से पानी की बूँद टपकती हो, उसका शरीर जरा-सा भी भीगा है, तब तक वह किनारे ही खड़ा रहे । वह साधु या साध्वी जल टपकते हुए या जल से भीगे हुए शरीर को एक बार या बार-बार हाथ से स्पर्श न करे, न उसे एक या अधिक बार घिसे, न उस पर मालिश करे, और न ही उबटन की तरह उस शरीर से मैल उतारे । वह भीगे हुए शरीर और उपधि को सुखाने के लिए धूप से थोड़ा या अधिक गर्म भी न करे । जब वह यह जान ले कि शरीर पूरी तरह सूख गया है, उस पर जल की बूँद या जल का लेप भी नहीं रहा है, तभी अपने हाथ से उस शरीर का स्पर्श करे, यावत् धूप में खड़ा रह कर उसे थोड़ा या अधिक गर्म करे । तत्पश्चात् वह साधु यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विचरण करे । [४५९] ग्रामनुग्राम विचरण करते हुए साधु या साध्वी गीली मिट्टी एवं कीचड़ से भरे हुए अपने पैरों से हरितकाय का बार-बार छेदन करके तथा हरे पत्तों को मोड़-तोड़ कर या दबा कर एवं उन्हें चीर- चीर कर मसलता हुआ मिट्टी न उतारे और न हरितकाय की हिंसा करने के लिए उन्मार्ग में इस अभिप्राय से जाए कि 'पैरों पर लगी हुई इस कीचड़ और गीली मिट्टी को यह हरियाली अपने आप हटा देगी', ऐसा करने वाला साधु मायास्थान का स्पर्श करता है । साधु को इस प्रकार नहीं करना चाहिए । वह पहले ही हरियाली से रहित मार्ग का प्रतिलेखन करे, और तब उसी मार्ग से यतनापूर्वक ग्रामनुग्राम विचरे । ग्रामग्राम विहार करते हुए साधु या साध्वी के मार्ग में यदि टेकरे हों, खाइयाँ, या नगर के चारों ओर नहरें हों, किले हों, या नगर के मुख्य द्वार हों, अर्गलाएँ हों, आगल दिये जाने वाले स्थान हों, गड्ढे हों, गुफाएँ हों या भूगर्भ-मार्ग हों तो अन्य मार्ग के होने पर उसी अन्य मार्ग से यतनापूर्वक गमन करे, लेकिन ऐसे सीधे मार्ग से गमन न करे । केवली भगवान् कहते हैं यह मार्ग कर्म-बन्ध का कारण है । ऐसे विषममार्ग से जाने से साधु-साध्वी का पैर आदि फिसल सकता है, वह गिर सकता है । शरीर के किसी अंग- उपांग को चोट लग सकती है, त्रसजीव की भी विराधना हो सकती है, सचित्त वृक्ष आदि का अवलम्बन ले तो भी अनुचित है । वहाँ जो भी वृक्ष, गुच्छ, झाड़ियाँ, लताएँ, बेलें, तृण अथवा गहन आदि हो, उन हरितकाय का सहारा ले लेकर चले या उतरे अथवा वहाँ जो पथिक आ रहे हों, उनका हाथ मांगे उनके हाथ के सहारा मिलने पर उसे पकड़ कर यतनापूर्वक चले या उतरे । इस प्रकार साधु या साध्वी को संयमपूर्वक ही ग्रामानुग्राम विहार करना चाहिए । साधु या साध्वी ग्रामानुग्राम विहार कर रहे हों, मार्ग में यदि जौ, गेहूँ आदि धान्यों के ढेरों, बैलगाड़ियाँ . या रथ पड़े हों, स्वदेश- शासक या परदेश- शासक की सेना के नाना प्रकार के पड़ाव पड़े हों, तो उन्हें देखकर यदि कोई दूसरा मार्ग हो तो उसी मार्ग से यतनापूर्वक जाए, किन्तु उस सीधे, (किन्तु दोषापत्तियुक्त) मार्ग से न जाए। उसे देखकर कोई सैनिक किसी दूसरे सैनिक से कहे- “आयुष्मन् ! यह श्रमण हमारी सेना का गुप्त भेद ले रहा है, अतः इसकी बाहें पकड़ कर खींचो । उसे घसीटो ।" इस पर
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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