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________________ १०४ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद का विचार भी न करे । इस प्रकार वह जलप्लावित होता हुआ मुनि जीवन-मरण में हर्ष-शोक से रहित होकर, अपनी चित्तवृत्ति को शरीरादि बाह्य वस्तुओं के मोह से समेटकर, अपने आपको आत्मैकत्वभाव में लीन कर ले और शरीर-उपकरण आदि का व्युत्सर्ग करके आत्मसमाधि में स्थिर हो जाए । फिर वह यतनापूर्वक जल में प्रवेश कर जाए । [४५६] जल में डूबते समय साधु या साध्वी अपने एक हाथ से दूसरे हाथ का, एक पैर से दसरे पैर का. तथा शरीर के अन्य अंगोपांगों का भी परस्पर स्पर्श न करे । वह परस्पर स्पर्श न करता हुआ इसी तरह यतनापूर्वक जल में बहता चला जाए । साधु या साध्वी जल में बहते समय उन्मजन-निमज्जन भी न करे, और न इस बात का विचार करे कि यह पानी मेरे कानों में, आँखों में, नाक में या मुँह में न प्रवेश कर जाए । बल्कि वह यतनापूर्वक जल में (समभाव के साथ) बहता जाए । यदि साधु या साध्वी जल में बहते हुए दुर्बलता का अनुभव करे तो शीध्र हो थोड़ी या समस्त उपधि का त्याग कर दे, वह शरीरादि पर से भी ममत्व छोड़ दे, उन पर किसी प्रकार की आसक्ति न रखे । यदि वह यह जाने कि मैं उपधि सहित ही इस जल से पार होकर किनारे पहुँच जाऊँगा, तो जब तक शरीर से जल टपकता रहे तथा शरीर गीला रहे, तब तक वह नदी के किनारे पर ही खड़ा रहे । साधु या साध्वी जल टपकते हए, जल से भीगे हए शरीर को एक बार या बार-बार हाथ से स्पर्श न करे, न उसे एक या अधिक बार सहलाए, न उसे एक या अधिक बार घिसे, न उस पर मालिश करे और न ही उबटन की तरह शरीर से मैल उतारे । वह भीगे हुए शरीर और उपधि को सुखाने के लिए धूप से थोड़ा या अधिक गर्म भी न करे । जब वह यह जान ले कि अब मेरा शरीर पूरी तरह सूख गया है, उस पर जल की बूंद या जल का लेप भी नही रहा है, तभी अपने हाथ से उस शरीर का स्पर्श करे, उसे सहलाए, उसे रगड़े मर्दन करे यावत् धूप में खड़ा रहकर उसे थोड़ा या अधिक गर्म भी करे । तदनन्तर संयमी साधु यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विचरण करे । .. [४५७] साधु या साध्वी ग्रामानुग्राम विहार करते हुए गृहस्थों के साथ अधिक वार्तालाप करते न चलें, किन्तु ईयर्यासमिति का यथाविधि पालन करते हुए विहार करें । [४५८] ग्रामानुग्राम विहार करते हुए साधु या साध्वी को मार्ग में जंघा-प्रमाण जल पड़ता हो तो उसे पार करने के लिए वह पहले सिर सहित शरीर के ऊपरी भाग से लेकर पैर तक प्रमार्जन करे । इस प्रकार सिर से पैर तक का प्रमार्जन करके वह एक पैर को जल में और एक पैर को स्थल में रखकर यतनापूर्वक जल को, भगवान् के द्वारा कथित ईर्यासमिति की विधि अनुसार पार करे । शास्त्रोक्तविधि के अनुसार पार करते हुए हाथ से हाथ का, पैर से पैर का तथा शरीर के विविध अवयवों का परस्पर स्पर्श न करे । इस प्रकार वह भगवान् द्वारा प्रतिपादित ईर्यासमितिविधि अनुसार जल को पार करे । साधु या साध्वी जंघा-प्रमाण जल में शास्त्रोक्तविधि के अनुसार चलते हुए शारीरिक सुख-शान्ति की अपेक्षा से या दाह उपशान्त करने के लिए गहरे और विस्तृत जल में प्रवेश न करे और जब उसे यह अनुभव होने लगे कि मैं उपकरणादि-सहित जल से पार नहीं हो सकता, तो वह उनका त्याग कर दे, शरीर-उपकरण आदि के ऊपर से ममता का विसर्जन कर
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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