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________________ आचार-२/१/३/१/४५३ १०३ को तुम हाथ से, पैर से, भाजन से या पात्र से, उलीच कर बाहर निकाल दो ।" परन्तु साधु नाविक के इस वचन को स्वीकार न करे, वह मौन होकर बैठा रहे । यदि नाविक नौकारूढ साधु से यह कहे कि "नाव में हुए इस छिद्र को तो तुम अपने हाथ से, पैर से, भुजा से, जंघा से, पेट से, सिर से या शरीर से, अथवा नौका के जल निकालने वाले उपकरणों से, वस्त्र से, मिट्टी से, कुशपत्र से, तृणविशेष से बन्द कर दो, रोक दो ।" साधु नाविक के इस कथन को स्वीकार न करके मौन धारण करके बैठा रहे । वह साधु या साध्वी नौका में छिद्र से पानी आता हुआ देखकर, नौका को उत्तरोत्तर जल से परिपूर्ण होती देखकर, नाविक के पास जाकर यों न कहे कि "तुम्हारी इस नौका में पानी आ रहा है, उत्तरोत्तर नौका जल से परिपूर्ण हो रही है ।" इस प्रकार से मन एवं वचन को आगे-पीछे न करके साधु रहे । वह शरीर और उपकरणों आदि पर मूर्च्छा न करके तथा अपनी लेश्या को संयमबाह्य प्रवृत्ति में न लगाता हुआ अपनी आत्मा को एकत्व भाव में लीन करके समाधि में स्थित अपने शरीर उपकरण आदि का व्युत्सर्ग करे । इस प्रकार नौका के द्वारा पार करने योग्य जल को पार करने के बाद जिस प्रकार तीर्थंकरों ने विधि बताई है उस विधि का विशिष्ट अध्यवसायपूर्वक पालन करता हुआ रहे । यही (र्याविषयक विशुद्धि ही ) उस भिक्षु और भिक्षुणी की समग्रता है । जिसके लिए समस्त अर्थों में समित, ज्ञानादि सहित होकर वह सदैव प्रयत्न करता रहे । ऐसा मैं कहता हूँ । अध्ययन- ३ उद्देशक - २ [ ४५४] नौका में बैठे हुए गृहस्थ आदि यदि नौकारूढ़ मुनि से यह कहें कि आयुष्मन् श्रमण ! तुम जरा हमारे छत्र, भाजन, वर्तन, दण्ड, लाठी, योगासन, नलिका, वस्त्र, यवनिका, मृगचर्म, चमड़े की थैली, अथवा चर्म-छेदनक शस्त्र को तो पकड़े रखो; इन विविध शस्त्रों को तो धारण करो, अथवा इस बालक या बालिका को पानी पिला दो; तो वह साधु उसके उक्त वचन को सुनकर स्वीकार न करे, किन्तु मौन धारण करके बैठा रहे । [४५५] यदि कोई नौकारूढ व्यक्ति नौका पर बैठे हुए किसी अन्य गृहस्थ से इस प्रकार कहे - 'आयुष्मन् गृहस्थ ! यह श्रमण जड़ वस्तुओं की तरह नौका पर केवल भारभूत है, अतः इसकी बाँहें पकड़ कर नौका से बाहर जल में फेंक दो ।' इस प्रकार की बात सुनकर और हृदय में धारण करके यदि वह मुनि वस्त्रधारी है तो शीघ्र ही फटे-पुराने वस्त्रों को खोलकर अलग कर दे और अच्छे वस्त्रों को अपने शरीर पर अच्छी तरह बाँध कर लपेट ले, तथा कुछ वस्त्र अपने सिर के चारों ओर लपेट ले । यदि वह साधु यह जाने कि ये अत्यन्त क्रूरकर्मा अज्ञानी जन अवश्य ही मुझे बाँहें पकड़ नाव से बाहर पानी में फैंकेंगे । तब वह फैंके जाने से पूर्व ही उन गृहस्थों को सम्बोधित करके कहे "आप लोग मुझे बाँहें पकड़ कर नौका से बाहर जल में मत फेंको; मैं स्वयं ही जल में प्रवेश कर जाऊँगा ।" कोई अज्ञानी नाविक सहसा बलपूर्वक साधु को बाँहें पकड़ कर नौका से बाहर जल में फेंक दे तो साधु मन को न तो हर्ष से युक्त करे और न शोक से ग्रस्त । वह मन में किसी प्रकार का ऊँचा-नीचा संकल्प-विकल्प न करे, और न ही उन अज्ञानी जनों को मारने-पीटने के लिए उद्यत हो । वह उनसे किसी प्रकार का प्रतिशोध लेने
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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