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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२०३||-48 १२०४||-49 अबप३२ (१२८८) सद्दे अतिते य परिगहमि सत्तोयसत्तो न उयेइ तुर्द्धि अतुष्डिदौसेइण दुही परस्स लोमाविले आययई अदत्तं ॥११५७-42 (१२८९) तण्हामिभूयस्स अद्दत्तहारिणो सद्दे अतितस्स परिगहे य । मायामुसं वइलोभदोसा तत्याविदुक्खा न विमुबई से ॥११९८॥-49 (१२९०) मोसस्स पच्छायपुरत्यओ य पओगकाले य दुही दुरंते । एवं अदत्तामिसमाययंतो सहे अतितो दुहीओ अणिस्सो ॥११९९।-44 (१२९१) सहानुरत्तस्स नरस्स एवं कत्तो सुहं होज कपाइ किंचि तत्योवभोगे वि किलेसदुक्खं निव्वतई जस्स कएणदुरखं ॥१२००।-45 (१२९२) एमेव सद्दमि गओपओसं उवेइ दुक्खोहपरंपराओ पदुद्दचित्तोयरिणाइ कम्मंजं से पुणीहोइ दुहं विवागे ॥१२०१६-46 (१२१३) सद्दे विरत्तो मणुमो विसोगे एएणदुक्खोहपरंपरेण न लिप्पए पवमझेवि संतो जलेण वा पोखरिणीपलासं ॥१२०२||-47 (१२९४) घाणस्स गंधं गहणं वयंति तं रागहेउं तु पणुत्रपाहु तंदोसहेउं अमणुत्रमाहुं समोय जो तेसुस यीयरागो (१२९५) गंधस्स घाणं गहणं वयंति पाणस्स गंधं गहणं वयंति रागस हेउंसमणुनमाहुं दोसस्स हेउं अमणुनमाहु (१२९६) गंधेसुजो गिद्धिमुवेइ तिव्यं अकालियं पावइ से विणासं रागाउरे ओसहगंधगिद्धे सप्पे बिलाओ विव निक्खमंतो (१२९७) जे याविदोसं समुवेइ तिव्वं तंसिक्खणे से उ उवेइ दुक्खें दुईतदोसेण सएणजंतू न किंचि गंधं अवरुझई से (१२९८) एगंतरते रूइरंसि गंधे अतालिसे से कुणई पओसं दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले न लिप्पई तेण मुणी विरागो ॥१२०७||-52 (१२९१) गंधाणुगासाणुगए य जीवे चराचरे हिंसइऽणेगरुवे चित्तेहिं ते परितावेइबाले पीलेइ अत्तगुरु किलिडे ॥१२०८1-83 (१३००) गंधाणुवाएण परिग्गहेण उप्पायणे रक्खणसनिओगे वेए विओगे य कहं सुहं से संभोगकाले य अतित्तलाभे ॥१२०९।-64 (१३०१) गंघे अतितेय परिग्गहम्मि सत्तोवसत्तो न उवे तुढिं अतुहिदीसेण दुही परस्स लोपाविले आययई अदत्तं ॥१२१०।-55 (११०२) ताहामिभूयस्स अदत्तहारिणी गंधे अतित्तस्स परिगहे य मायापुसं वहइ लोभदोसा तत्थावि दुक्खा न विमुचई से ॥१२११14-58 (१३०३) मोसस्स पच्छा यपुरत्यसोय पओगकाले यदुही दरंते एवं अदत्ताणि समाययंतो गंधे अतितो दुहिओ अणिस्सो ॥१२१२॥-67 (१३०४) गंधाणु रत्तस्स नरस्स एवं कतो सुहं होज कयाइ किंवि तत्योवभोगे वि किलेसदुक्खं निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं ॥१२१३॥-58 (१३०५) एमेव गंधपि गओ पओस उवेइ दुक्खोहपरंपराओ पदुष्टचित्तोय चिणाइ कप्पंज से पुणो होइ दुइं विवागे ॥१२१४॥-59 ॥१२०५||-50 ॥१२०६1-51 For Private And Personal Use Only
SR No.009773
Book TitleAgam 43 Uttarajjhayanam Mulsutt 04 Moolam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Shrut Prakashan
Publication Year1996
Total Pages114
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 43, & agam_uttaradhyayan
File Size2 MB
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