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और जीव की यह अवस्था भी हमेशा से४. दुःखरूप रही है. ५. फल में भी दुःख को ही देने वाली रही है. ६. अनुबंध- परंपरा में भी दुःख ही खड़ा करनेवाली रही है.
सच में देखे तो इस वक्त भी जीव की दशा ऐसी ही दुःख भरी है. एयस्स णं वोच्छित्ती सुद्ध-धम्माओ. सुद्धधम्म-संपत्ती पावकम्मविगमाओ. पावकम्म-विगमो तहा-भव्वत्तादि-भावाओ. २
कुछ उपाय? हाँ है. इस दुःख का नाश है. कैसे? ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप शुद्ध धर्म से. हाँ! यह धर्म औचित्य के साथ सत्कार व विधिपूर्वक सतत सेवन करना होगा. यह शुद्ध धर्म मुझे सही में मिलेगा कहाँ? अंदर से मिलेगा! बाहर से नहीं. कैसे? इस धर्म को ढंक कर बैठे विपरीत श्रद्धा व आचरण रूप मोहनीय नाम के पापकर्म के विगमन से, चले जाने से.
और, पाप कर्मों का विगमन होता है तथा-भव्यत्व आदि भावों के परिपाक से. (मोक्ष में जाने का जीव का स्वभाव यह भव्यत्व स्वभाव है, परंतु हर जीव के इस स्वभाव का परिपाक भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है. जिसे तथा-भव्यत्व कहते है. काल, नियति- भवितव्यता, कर्म और पुरूषार्थप्रयत्न के परिपाक की भिन्नता के आधार पर तथा-भव्यत्व की भिन्नता तय
होती है). तस्स पुण विवागसाहणाणि-चउसरणगमणं, दुक्कड-गरिहा, सुकडासेवणं.
इस तथा भव्यत्व के भी विपाक- परिपाक के साधन है... १. इस साधना की सिद्धि में आने वाली आपदाओं के सामने रक्षण देने व आगे
बढ़ने हेतु मार्गदर्शन, समर्थन देने में पूर्ण रूप से समर्थ ऐसे अरहंत, सिद्ध,
साधु व जिन धर्म; इन चार की शरण में गमन करना. २. स्वयं के इस जन्म व गत जन्मों के सभी दुष्कृतों की पाप व पापों की
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गुण दिवे, ले लो... हमें फूलों में मतलब, कांटों मे क्या निस्बत?