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अनुबंध-परंपरा को हटाने में अप्रतिहत-कभी निष्फल न जाय ऐसी, गर्दा,
उनका एकरार. ३. सभी के सुकृतों की, अच्छाईयों की, जीव को कुशल व कल्याणकारी भावों
के साथ अनुबंध करवाने में समर्थ ऐसी अनुमोदना. अओ कायव्वमिणं होउ-कामेणं सया सुप्पणिहाणं, भुज्जो भुज्जो संकिलिसे, तिकाल-मसंकिलिसे. ३
अतः इन दुःखों से मुक्ति की इच्छा वालों को यह प्रक्रिया सदा सुप्रणिधान वाले हो कर, लक्ष्य व प्रक्रिया की पूर्ण एकाग्र चाहना वाले हो कर, चित्त के राग-द्वेष आदि संक्लेश वाली अवस्था में बारंबार- जब तक कि चित्त का संक्लेश शांत न हो जाय, और चित्त की असंक्लेश वाली अवस्था में तीनों काल करने योग्य है. ताकि तथा-भव्यत्व के परिपाक से शुद्ध धर्म प्राप्ति की योग्यता प्रकट हो सकें.
चार शरण
अरिहंत का शरण जावज्जीवं मे भगवंतो परम-तिलोग-णाहा अणुत्तर-पुण्ण-संभारा खीण-रागदोसमोहा अचिंत-चिंतामणी भव-जलहि-पोया एगंतसरण्णा अरहंता सरणं. ४
दुर्गति आदि सभी भयों के सामने सभी जीवों का रक्षण-पालन करने वाले होने से जो तीनों लोक के परम नाथ हैं; सभी तरह की अनुकूलताओं की हितकारी प्राप्ति करवाने वाले सर्वोच्च पुण्य के असीम भंडार हैं; राग, द्वेष व मूढ़ता जनक मोह-अज्ञान जिनके समाप्त हो चुके हैं; जो सभी मनोरथों को पूर्ण करने वाले है, व जिस सुख की कल्पना भी नहीं की जा सकती ऐसे मोक्ष सुख की प्राप्ति कराने वाले अचिंत्य चिंतामणि रत्न हैं:
छोटों के सामने शक्ति का प्रदर्शन स्वयं कमजोटी है.