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है. उपाय है पाप में नाखुशी व पाप की अरूचि, और यह शक्य बनता है प्रभु के शरण में रह कर बार-बार की गई दुष्कृत गर्दा से. तो, दूसरी ओर हमारे सभी सुखों की वज़ह है सुकृतों में खुशी व सुकृतों की रूचि. जीव को आदतन यह अनुकूल नहीं. अतः पुण्य व पुण्यानुबंध दोनों का ही दुष्काल बना रहता है.
उपाय है जगत के सभी जीवों के सुकृतों की भाव से सेवना, अनुमोदना... प्रभु की ही शरण में रह कर बार-बार की गई सुकृत अनुमोदना हमारे संस्कारों को पलट कर रख देती है, जीव की योग्यता को पलट कर रख देती है. अब जीव शुद्ध धर्म की प्राप्ति के लायक बनता है, और अब सही मायनों में दुःखमुक्ति व सुखप्राप्ति की जीव की यात्रा प्रारंभ हो सकती है. शुद्ध धर्म हेतु योग्यता की प्राप्ति, यही जीव की सबसे बड़ी उपलब्धि है. योग्यता के बिना भी जीव को कहने को तो धर्म मिलता रहा है, लेकिन वह अपना प्रभाव नहीं बता सका.
चार शरण, दुष्कृत गर्दा व सुकृत अनुमोदना रूपी यह प्रक्रिया कैसे जीवंत व सफल बनाएँ वह रहस्य, वह प्रक्रिया भी 'प्रणिधान-प्रार्थना' व 'प्रणिधि शुद्धि' के तहत बड़े ही प्रभावी तरीके से बताई गई है. यह प्रक्रिया भी अपने आप में इस सूत्र को एक खास दरज्जा प्राप्त करवाती है. साधक की साधना में मानों यह गज़ब का प्राण भर देती है.
इस समग्र प्रक्रिया की असरकारकता की चावी सूत्र-पठन पारायण मात्र नहीं है, बल्कि पूरी गहराई से, हृदय के तीव्र-तीव्रतम भावों से सूत्र के हर शब्द व वाक्य का बार-बार भावन है.
इस प्रक्रिया से तात्कालिक फायदे भी बहोत लिए जा सकते है. जिस बात का संक्लेश सतत मन में रहा करता हो, जो दोष जीवन में अखरता हो, उसके निवारण के लिए सूत्र में बताए गए अरिहंत आदि के जो विशेषण उस दोष हेतु लागु पड़ते हो, जो बातें दुष्कृत-गर्दा की लागू पडती हो, और जो प्रतिपक्षी गुण अनुमोदना करने जैसे लगते हो, उन बातों को ही केन्द्र में रख कर, ज्यादा से ज्यादा भार दे कर यह प्रक्रिया बार-बार की जा सकती है. एक ही बेठक में यह प्रक्रिया तब तक भाव से दोहराते रहें जब तक कि मन में से वह संक्लेश शांत न हो जाय. कृपया ध्यान रखें, कि मन के भीतर का संक्लेश अन्य बात है, एवं जिनकी वजह से संक्लेश जग रहा है, वे बाहरी संयोग अलग बात है. यह प्रक्रिया मुख्य रूप से मन के भीतर के संक्लेशों पर काम करती है.
परमात्मा की भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ भांति है.