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________________ • नित्य भावना . शिवमस्तु सर्व जगतः, परहितनिरता भवन्तु भूतगणाः । दोषाः प्रयांतु नाशं, सर्वत्र सुखी भवन्तु लोकाः ।। मेरे अंदर-बाहर सारे जगत में शांति हो जाओ, मेरे अंदर-बाहर की दुनिया के सारे जीव परस्पर के हित में निरत हो जाओ, मेरे अंदर-बाहर की दुनिया के सारे दोष पूरी तरह नाश हो जाओ, मेरे अंदर-बाहर की दुनिया के सारे जीव सुखी हो जाओ, सारा विश्व सुखी हो जाय. खामेमि सव्व जीवे, सव्वे जीवा खमंतु मे । __ मित्ति मे सव्व भूएसु, वेरं मज्झ न केणई ।। मै मेरे सहित सभी जीवों को खमाता हूँ, क्षमा करता हूँ (क्योंकि जिसके साथ वैर है उसका भला मैं कभी नहीं कर सकूँगा. मेरा भी मैं बिगाड़ता रहता हूँ, कहीं खुद ही से तो वैर नहीं हैं न? क्षमा कर दूँ!) मेरे सहित सभी जीव मुझे क्षमा करें, मैं माफी माँगता हूँ. (मैंने मेरा भी बहोत बिगाड़ा है, शायद सबसे ज्यादा बिगाड़ा है, माफी मांग लूं, खुद से!) ___मेरे सहित समस्त जीवों के साथ मेरी मित्रता है, मै भला चाहता हूँ सब का! (मुझे भी तो मेरे प्यार की, साथ-सहकार व समर्थन की जरूरत है. है न? शायद सबसे ज्यादा! क्यूं न मैं दूं? मैं मेरा मित्र बन जाऊँ तो?) मेरा मेरे सहित किसी भी जीव के साथ वैर नहीं है. (वैर रखने पर खुद को दुःखी करने के अलावा और क्या होगा? यह तो खुद ही के साथ और भी वैर हुआ! वैर मुक्त हो कर देख लूँ, बहोत बड़ी राहत हो जाएगी!) पुरिसा! तुमं चेव तुम मित्तं, किं बहिया मित्तमिच्छसि? हे पुरूष! तू ही तेरा मित्र हैं, क्यूँ बाहर के मित्र की इच्छा करता है? दुर्भावनाएँ पुण्य को भी पाप बनाने में समर्थ है.
SR No.009725
Book TitleAradhana Ganga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjaysagar
PublisherSha Hukmichandji Medhaji Khimvesara Chennai
Publication Year2011
Total Pages174
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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