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चित्र-विचित्र जीव संसार हमारे केवलज्ञानी, देवाधिदेव जिनेन्द्र भगवंत ने अपने ज्ञान के माध्यम से जैसा जीव-सृष्टि को देखा, जाना व समझा है तथा समझाया है, वह सत्य ही है; बहुत ही व्यवस्थित है; और उनकी समझावट में पूरी जीव-सृष्टि का वर्णन है।
जो लोग जीव-सष्टि में से किसी जीव विशेष को लेकर अध्ययन करते हैं वे जीव रूपी-दृश्य ही होते है, अरूपी-अदृश्य नहीं। वे जीव संसारी-सकर्मा ही होते है, मुक्त-अकर्मा नहीं। जबकि देवाधिदेव भगवंत के द्वारा प्रदर्शित जीव-सृष्टि में सिद्ध संसारी, सूक्ष्म बादर, रूपी अरूपी, त्रस स्थावर, आदि सभी जीव आ जाते हैं।
भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से जीवों का वर्गीकरण
परमात्मा ने चैतन्य आदि भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से जीवों को कई-कई वर्गों में बाँटा है; जैसे कि
शुद्ध चैतन्य की अपेक्षा से सभी जीव मूलतः एक ही समान है; क्योंकि सभी जीवों में एक सा ही चैतन्य है, एक सा ही उपयोग गुण है; एक समान ही गुण व शक्तियाँ हैं; सभी में शुद्धता, पूर्णता और स्थिरता एक जैसी ही हैं; चाहे वे जीव सिद्ध हों या संसारी।
परमात्मा ने सभी संसारी-सकर्मा अर्थात् कर्मसहित जीवों को दो वर्गों में बाँटा हैं- (१) त्रस, (२) स्थावर।
जो ठंडी, गर्मी, भय, भूख, प्यास आदि किसी भी अच्छे या बुरे निमित के कारण इधर-उधर गति आगति-जावन आवन, हलन-चलन आदि कर सकते हैं, वे जीव त्रसकायिक कहलाते हैं।
'त्रस' नामक नामकर्म के उदय से जीवों को त्रस पर्याय प्राप्त होती है।
स्थावर जीव वे हैं जो ठंडी, गर्मी, सुख, दुःख आदि संयोगों में स्थावरस्थिर ही बने रहते हैं; किसी भी प्रकार से इधर-उधर जावन आवन, हलन चलन आदि नहीं कर सकते।
'स्थावर' नामक नामकर्म के उदय से जीवों को ऐसी स्थावर-स्थिर पर्याय प्राप्त होती है।
क्रोध अक्ल को ना कर देता है.
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