________________
-16--15-5-15-3-5
श-52-5
********** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
गाथा-५८३HHH--- ठहरकर दुर्द्धर तप किया, जिससे सब कर्मों को क्षय कर मोक्ष पद
कर्मों का आसव बंध होता है, जिससे संसार में जन्म-मरण करना पड़ता है, पाया, परमात्मा हो गये।
सुख-दुःख भोगना पड़ते हैं। मिथ्यात्व रागादिक के छोड़ने से निज शुद्धात्म तत्त्व को यथार्थ जानकर
ज्ञान की शक्ति सब कर्मों को क्षय कर मोक्ष परमपद देने वाली है, जब जिनका चित्त परिणत हो गया, ऐसे ज्ञानियों को शुद्ध बुद्ध परम स्वभाव®
आत्मा में सम्यज्ञान प्रगट होता है तब उपयोग मन, वचन, काय से हटाकर * परमात्मा को छोड़कर दूसरी कोई भी वस्तु इष्ट नहीं भासती इसलिये उनका
अपने स्वभाव में लगाने से सब कर्म क्षय होकर मुक्ति की प्राप्ति होती है। मन कभी विषय वासना, अज्ञान भाव में नहीं रमता । कैसे हैं सम्यकदृष्टि?
शरीर आदि जिनको आत्मा से भिन्न कहा गया है, उन रूप ही अपने को जिन्होंने वीतराग सहजानंद, अखंड सुख में तन्मय, परमात्म तत्त्व को जान
मानना अज्ञान है। अज्ञानी आत्मा, कर्मजनित दशाओं में अपनत्व मानकर, लिया है। इसलिये यह निश्चय हुआ कि जो विषय वासना के अनुरागी हैं, वे
अपने आत्मा के सच्चे स्वभाव को भूला हुआ निरंतर शुभ-अशुभ कर्म बांधकर अज्ञानी हैं और जो ज्ञानीजन हैं वे विषय विकार अज्ञान भाव से सदा विरक्त ही
एक गति से दूसरी में, दूसरी से तीसरी में इस तरह अनादिकाल से भ्रमण हैं। अपनी स्वभाव साधना से कर्मों को क्षय कर मोक्ष प्राप्त करते हैं।
करता चला आया है। जब तक यथाख्यात चारित्र नहीं होता, तब तक सम्यक् दृष्टि के दो
यह जीव अनादिकाल से ज्ञानावरणादि कर्मों के उदय के साथ परिणमन धारायें रहती हैं- १. शुभाशुभ कर्म धारा २. ज्ञान धारा । उन दोनों के एक
करता हुआ, जो अपने अशुद्ध परिणाम करता है उन ही का यह अज्ञानी जीव साथ रहने में कोई विरोध नहीं है। ऐसी स्थिति में कर्म अपना कार्य करता है
अपने को कर्ता तथा भोक्ता मान लेता है तथा मैंने अच्छा किया या बुरा किया और ज्ञान अपना कार्य करता है। जितने अंश में शुभाशुभ कर्म धारा है उतने
अथवा मैं सुखी हूं, मैं दु:खी हूं, ऐसा मानता हुआ निरंतर कर्मों का आसव बंध अंश में कर्म बंध होता है और जितने अंश में ज्ञानधारा है उतने अंश में कर्म
करता है। कर्मकृत परिणामों को अपनी परिणति मान लेना ही संसार भ्रमण का नाश होता जाता है।
का बीज है। इसी से यह जन्म-मरण का चक्र चलता रहता है। विषय कषाय के विकल्प या व्रत नियम के विकल्प अथवा शुद्ध
जब आत्मा भेदविज्ञान के द्वारा अपने सत्स्वरूप का अनुभव करता है, स्वरूप का विचार तक भी कर्म बंध का कारण है, शुद्ध परिणति रूप
स्व-पर का यथार्थ निर्णय करता है, तब सम्यज्ञान प्रगट होता है जिसमें ज्ञानधारा ही मोक्ष का कारण है।
आत्मा का स्वभाव सर्व अन्य आत्माओं से व पुद्गलादि पांच द्रव्यों से तथा प्रश्न- अज्ञान की शक्ति और ज्ञान की शक्ति क्या है?
आठ कर्मों व उनके फल से, सर्व रागादि भावों से निराला, परम शुद्ध अपने इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं
को जानता है। अन्यानं समयेना, कर्म उप्पत्ति नन्त जमाई।
इस तरह सम्यज्ञान की शक्ति से अज्ञान भाव का नाश होता है। न्यान समय उववन्नं, गलियं कम्मान तिविह जोएन ॥५८३॥ आत्मा आप ही से आप में क्रीड़ा करता हुआ शनैःशनैः शुद्ध होता हुआ परमात्मा अन्वयार्थ-(अन्यानं समयेना) आत्मा का अज्ञान में होने से (कम्म
छ हो जाता है। जितनी मन, वचन, काय की शुभ-अशुभ क्रियायें हैं वे सब पर उप्पत्ति नन्त जंमाई) कर्मों की उत्पत्ति, आस्रव बंध होता है, जिससे अनंत
हैं । ज्ञानी इनसे अपने उपयोग को हटाकर अपने परम पारिणामिक भाव जन्म धारण करना पड़ते हैं (न्यान समय उववन्नं) आत्मा में सम्यज्ञान के
छ धुवतत्त्व शुद्धात्मा में लगाता है जिससे सब कर्म क्षय होकर केवलज्ञान अरिहंत * प्रगट होने पर (गलियं कम्मान तिविह जोएन) त्रिविध योग से सब कर्म क्षय हो
पद और सिद्ध पद प्रगट होता है। * जाते हैं।
जब आत्मा और कर्म के भेदविज्ञान द्वारा शुद्ध चैतन्य चमत्कार मात्र विशेषार्थ- अज्ञान की शक्ति जन्म-जन्मांतर संसार में परिभ्रमण
आत्मा को उपलब्ध करता है, अनुभव करता है तब मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति कराने वाली है। जब तक आत्मा अज्ञान भाव में रहता है, तब तक अनंतानंत
और योग स्वरूप अध्यवसान जो कि आस्रव भाव के कारण हैं, उनका अभाव
३०९ *HARASHTRA
***
M2-31-1-1-1-1-1-18**
长长长长长