________________
长长长长长长
当经考卷长卷卷
********* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
अज्ञान मिथ्यात्व भाव, अनंतानंत कर्मों का बंध कराने वाला है। जब 2 तक जीव अपने स्वरूप को भूला इस अज्ञान भाव सहित रहेगा, तब तक 2 संसार में परिभ्रमण करेगा।
जब जीव को अपने स्वरूप का बोध, सम्यक्दर्शन सम्यज्ञान होता है और अपने ज्ञान स्वभाव में रहता है तभी कर्मों से छुटकर मुक्ति की प्राप्ति होती है । निज निरंजन परमात्म तत्त्व की प्राप्ति उन्हीं को होती है, जिनके अंतस् में भेदज्ञान की ज्योति प्रज्वलित हो अर्थात् निज ज्ञायक परमात्मा के अतिरिक्त शरीर, इंद्रिय, विषय, वाणी और मन को भी अपने से अत्यंत भिन्न जिन्होंने जाना, माना व अपनाया हो। इसके लिये परम तत्त्व के पावन उपदेश का श्रवण मनन एवं उपयोग का संपूर्ण समर्पण हो, सद्गुरु का संयोग हो, तत्त्व श्रवण की रुचि हो, स्व-पर भेदविज्ञान में रुचि हो तथा संसार, शरीर व भोगों से विरक्ति पूर्वक मन की स्थिरता एवं ध्यानाभ्यास में सक्रियता का संयोग हो, साथ ही काललब्धि की अनुकूलता हो तो साधक इसी जन्म में परमात्म तत्त्व का साक्षात्कार कर सकता है अर्थात् अड़तालीस मिनिट एक अंतर्मुहूर्त अपने ज्ञान स्वभाव में रहने से घातिया कर्म क्षय होकर केवलज्ञान की प्राप्ति होती है।
जब तक यह आत्मा स्व-पर के लक्षण को नहीं जानता तब तक वह भेदज्ञान के अभाव के कारण कर्म प्रकृति के उदय को अपना समझकर परिणमित होता है, इस प्रकार मिथ्यादृष्टि अज्ञानी, असंयमी और कर्ता होकर कर्म का बंध करता है, जब आत्मा को भेदज्ञान होता है तब वह कर्ता नहीं होता इसलिये कर्म का बंध नहीं करता, ज्ञाता दृष्टा रूप से परिणमित होता है।
ज्ञानी कर्म को न कर्ता है, न भोगता है, वह कर्म के स्वभाव को मात्र जानता ही है। इस प्रकार मात्र जानता हुआ करने और भोगने के अभाव के कारण शुद्ध स्वभाव में निश्चल ऐसा, वह वास्तव में मुक्त ही है।
प्रश्न-यह अज्ञान भाव कब तक रहता है और कमों से मुक्त होने का उपाय क्या है?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंअन्यान उत्त जुत्तं, कम्मं तव सहाव अनेयं च ।
न्यान बलेन मुनिवरा, बिन विलय कम्म तिविहं च ॥५८१॥ *HARMA
गाथा-५८१,५८२ ----H-HIKHEL अन्यान परिनइसहियं, परिनवइ कम्मान अनंत भावेहि। न्यान दिस्टि विलयंतो, जरयनं तिमिर नासनं सहसा ।। ५८२॥
अन्वयार्थ - (अन्यान उत्त जुत्तं) यह अज्ञान भाव तब तक रहता है जब तक सम्यक्ज्ञान नहीं होता (कम्मं तव सहाव अनेयं च) कर्मों से मुक्त होने का उपाय तप साधना है (न्यान बलेन मुनिवरा) ज्ञान के बल से वीतराग निर्ग्रन्थ मुनि महाराज (षिन विलय कम्म तिविहं च) अपने स्वभाव की लीनता से तीनों प्रकार के कर्मों को क्षण मात्र में क्षय कर देते हैं अर्थात् सब कर्म क्षण भर में क्षय हो जाते हैं।
(अन्यान परिनइ सहियं) जब तक जीव अज्ञान की परिणति में परिणमन करता है (परिनवइ कम्मान अनंत भावेहि) तब तक अनंत प्रकार के भावों से कर्मों का बंध होता है (न्यान दिस्टि विलयंतो) जब सम्यकदर्शन सहित सम्यज्ञान की दृष्टि होती है तब सब कर्म विला जाते हैं (जं रयनं तिमिर नासनं सहसा) जैसे-सूर्य के प्रगट होते ही रात्रि का अंधकार एकदम विला जाता है।
विशेषार्थ- जब तक सम्यक्ज्ञान नहीं होता तब तक अज्ञान भाव ॐ रहता है, तप साधना से कर्मों की निर्जरा होती है। सम्यकज्ञान के बल से
वीतराग निर्ग्रन्थ साधु अपने स्वभाव साधना तप में लीन होने से क्षण मात्र में तीनों प्रकार के कर्मों को क्षय कर देते हैं।
जब तक जीव अज्ञान की परिणति में परिणमन करता है तब तक अनंत प्रकार के भावों से कर्मों का बंध होता है। जब सम्यक्दर्शन सहित सम्यक्ज्ञान की दृष्टि होती है तब सब कर्म विला जाते हैं, जैसे सूर्य के प्रगट होते ही रात्रि का अंधकार विला जाता है।
___ समस्त कर्म मल कलंक से रहित जो आत्मा उसके स्वाभाविक ज्ञानादि गुणों का स्थान तथा संसार अवस्था से अन्य अवस्था का होना, वह मोक्ष कहा जाता है । इसी मोक्ष को वीतराग देव ने राज्य विभूति छोड़कर सिद्ध किया।
हे भव्य ! तू मायाजाल को छोड़कर महान पुरुषों की तरह आत्म कल्याण कर । उन महान पुरुषों ने भेदाभेद रत्नत्रय की भावना के बल से निज स्वरूप को जानकर विनाशीक राज्य छोड़ा और अविनाशी राज्य परमपद के लिये उद्यमी हुए। बाह्याभ्यंतर परिग्रह का त्याग कर, वीतराग निर्विकल्प समाधि में
*HHHHHHHHI
市政章珍章少年少年