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________________ * ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी जब श्री गुरु के सत्संग से या जिनवाणी के प्रवचन से इसको यह भेदविज्ञान होता है कि मैं तो द्रव्य हूँ, मेरा स्वभाव परमशुद्ध, निरंजन, * निर्विकार, अमूर्तिक, पूर्ण ज्ञान दर्शनमयी ज्ञानानंद स्वभाव है । मेरे साथ * पुद्गल का संयोग मेरा रूप नहीं है, मैं निश्चय से पुद्गल से व पुद्गलकृत * सर्व रागादि विकारों से रहित हूँ। तब ही यह अजीव का सम्बंध छूटकर सर्व कर्म बंधनों से मुक्त होकर परमात्मा होता है। प्रश्न-यह जीव-अजीव का सम्बंध कब और कैसे छूटता है? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - झोयं न्यान सहावं, झोऊर्थ सहाव पर दव्व विपनं च। टंकोत्कीर्न सहियं, ठिदिकरनं मुक्ति नंत कालम्मि।। ५७३॥ ठंकार भाव सुद्ध, नंतनंत दिस्टि दिस्टंतो। नो कम्म कम्म विलयं,धी ऊर्थ सहाव कम्म विपनं च ॥५७४।। जैवंतो जैकारं, छेयं पर भाव पर्जाव गलियं च । चूरति विषय राग, नुक्रित उववन्न दंसनं चरनं ॥ ५७५॥ धीईभाव संजुत्तं, गिर उववन्न भाव लण्य उवलयं । षलु निस्चै च सहावं, कम्मंगलयंति केवलं सुद्धं ॥५७६॥ अन्वयार्थ - (झोयं न्यान सहावं) ज्ञान स्वभावी शुद्धात्मा का ध्यान करो (झो ऊर्ध सहाव पर दव्व षिपनं च) अपने श्रेष्ठ शुद्ध स्वभाव के ध्यान से परद्रव्य छूट जाता है (टंकोत्कीर्न सहियं) अपने टंकोत्कीर्ण स्वभाव सहित अर्थात् टांकी से उकेरे गये स्पष्ट शिलाखंड की तरह ही कर्मादि विकारों से रहित आत्मा की शुद्ध दशा (ठिदिकरनं मुक्ति नंत कालम्मि) में स्थितिकरण होने से आत्मा मुक्ति में अनंतकाल तक रहती है। (ठंकार भाव सुद्धं) अपने शुद्ध भाव की ठंकार घनघोर गर्जना से (टं * नंतनंत दिस्टि दिस्टंतो) हमेशा अनंत चतुष्टयमयी स्वभाव दृष्टि में दिखाई *देता है (नो कम्म कम्म विलयं) इस शुद्धोपयोग रूप परिणमन से नो कर्म शरीर तथा द्रव्य कर्म सब विला जाते हैं (धी ऊर्ध सहाव कम्म षिपनं च) श्रेष्ठ ज्ञान स्वभाव में रहने से सर्व कर्म क्षय हो जाते हैं। (जैवंतो जैकारं) जयवंत रहो, जय-जयकार करो (छेयं पर भाव पर्जाव गाथा-५७३-५७७********** गलियं च) जिससे रागादि परभाव क्षय हो जाते हैं और पर्याय भी गल जाती है (चूरंति विषय राग) विषयों का राग चूर-चूर हो जाता है (नु क्रित उववन्न दंसनं चरनं) सम्यक्ज्ञान के प्रताप से क्षायिक सम्यक्दर्शन और क्षायिक चारित्र प्रगट हो जाता है। (धी ईर्ज भाव संजुत्तं) ज्ञान के सहज भाव में लीन होने से (गिर उववन्न भाव लष्य उवलष्यं) अरिहंत होकर, दिव्य वाणी का प्रकाश होता है व मन, वचन, काय से अगोचर आत्मा का प्रत्यक्ष दर्शन हो जाता है (षलु निस्चै च सहावं) यही वास्तव में आत्मा का निश्चय स्वभाव है (कम्मं गलयंति केवलं सुद्ध) फिर शेष कर्म भी गल जाते हैं और आत्मा केवल शुद्ध सिद्ध हो जाता है तथा संयोगी पुद्गल भी शुद्ध रूप हो जाता है। विशेषार्थ- अपने श्रेष्ठ शुद्ध ज्ञान स्वभावी शुद्धात्मा का ध्यान करने से सब परद्रव्य अजीव का सम्बंध छूट जाता है और आत्मा अनंत काल तक मुक्ति में विराजमान रहता है । शुद्धोपयोग ही मोक्ष का कारण है। आत्म शक्ति जाग्रत कर, धर्म की जय-जयकार मचाओ, सम्यक्ज्ञान के प्रताप से क्षायिक सम्यक्दर्शन और क्षायिक चारित्र प्रगट होता है, जिससे रागादि परभाव क्षय हो जाते हैं और पर्याय भी गल जाती है। विषयों का राग चूर-चूर हो जाता है,शरीरादि संयोग छूट जाता है। शुद्ध स्वभाव के अनुभव से ही आत्मा के शुद्ध गुण प्रगट होते हैं, आत्मा के ध्यान से अरिहंत पद प्रगट होता है, केवलज्ञान स्वभाव ही निश्चय से अपना स्वभाव है, जिसके प्रगट होने से जीव-अजीव का सम्बंध छूट जाता है, पूर्व बंधोदय कर्मों के क्षय होने पर, जीव अपने परिपूर्ण शुद्ध सिद्ध स्वरूप में स्थित हो जाता है और पुद्गल अजीव भी अपने शुद्ध पुद्गल परमाणु रूप में हो जाता है यही मोक्ष है। सिद्ध भगवान जन्म और मरण कर रहित हैं, चारों गतियों के द:खों से रहित हैं और केवलदर्शन केवलज्ञान मयी समस्त कर्मों से रहित अनंत काल तक अपने स्वभाव में आनंद रूप विराजते हैं। प्रश्न-सिद्ध पद मुक्ति प्राप्त करने का मूल आधार क्या है? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - षडी विसेसं उत्तं, लपिज्जइ लज्यनेहि संजुतं । सूधम सुभाव सुद्ध, कम पिपिऊन सरनि संसारे ॥ ५७७॥ KAKKAR -E-E 6 E-ME E-
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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