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________________ गाथा-५६९-५७२------------ ---- - - ****** श्री उपदेश शुद्ध सार जी नु लज्य उवलयं, चू चेतहि आसवेवि दुवियप्पो। छेयंति विषय मलयं, जैवन्तो नंत दंसनं न्यानं ॥ ५७२ ॥ अन्वयार्थ - (षस्टं इस्टं च सुद्ध) जगत में छह द्रव्य अपने-अपने इष्ट शुद्ध स्वभाव में निश्चय से हैं (टंकोत्कीर्न भाव उवनं च) अपना टंकोत्कीर्ण भाव प्रगट करो (जै टंकोत सुभावं) टंकोत् स्वभाव की जय हो (षिनं षिपनं च कम्म बन्धानं) क्षणमात्र में, एक अंतर्मुहूर्त में सारे कर्म बंधन क्षय हो जाते हैं। (कमल सुभाव संसुद्धं) अपने ज्ञायक स्वभाव में परिपूर्ण शुद्धता से स्थिर रहो (ठंकारे सुभाव मुक्ति सहियं च) अपने शुद्ध ममल स्वभाव की ठंकार लगते ही मुक्ति श्री का मिलन हो जाता है (जै ठंकार ममल सहियं) जब अपने ममल स्वभाव की ठंकार सहित जय-जयकार मचती है तो (कल लंक्रित कम्म भाव मुक्कं च) शरीरादि संयोग भाव कर्म सब छूट जाते हैं। (कमल सुभाव जिनुत्तं) आत्मा का कमल स्वभाव है ऐसा जिनेन्द्र ने कहा है (षादं पंच न्यान कम्म तिक्तं च) पंचम ज्ञान का आश्रय लेने से कर्म छूट जाते हैं (गिरा सहाव संजुत्त) दिव्यध्वनि रूप स्वभाव में लीन होने से (धी ईर्ज सभाव मिच्छ विलयंति) श्रेष्ठ ज्ञान स्वभाव के प्रगट होते ही सब मिथ्यात्व विला जाता है। (नु लष्यं उवलष्यं) यह कितने बड़े सौभाग्य की बात है कि अपना लक्ष्य निज शुद्धात्मा का अनुभव हो गया (चू चेतहि आसवेवि दुवियप्पो) अपनी आत्म शक्ति जाग्रत कर पूरी शक्ति से अपने में स्थिर रहो, दोनों प्रकार का आश्रव विला जायेगा (छेयंति विषय मलयं) मल को मत छुओ, उस तरफ मत देखो (जैवन्तो नंत दंसनं न्यानं) अपने अनंत दर्शन ज्ञान स्वभाव की जय-जयकार मचाओ। विशेषार्थ-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल यह छह द्रव्य अविनाशी अपने-अपने स्वभाव में सदा रहते हैं । संसारावस्था में जीवों में विभावपना होता है तथा पुद्गल परमाणु स्कंध रूप परिणमते हैं, शेष चार * द्रव्य उदासीनपने स्वभाव में ही रहते हैं। इसमें अपना जो टंकोत्कीर्ण ममल * स्वभाव है उसे प्रगट करो। अपने ध्रुव टंकोत् स्वभाव की जय-जयकार मचाओ तो क्षणभर, एक मुहूर्त में सारे कर्म बंध क्षय हो जाते हैं। अपने ज्ञायक स्वभाव में परिपूर्ण शुद्धता से स्थिर रहो, अपने शुद्ध ममल स्वभाव की ठंकार लगते ही मुक्ति श्री का मिलन हो जाता है। जब अपने .. ३०५ ममल स्वभाव की ठंकार सहित जय जयकार मचती है तो शरीरादि संयोग और भाव कर्मादि सब छूट जाते हैं। आत्मा का कमल स्वभाव है ऐसा जिनेन्द्र ने कहा है, पंचम ज्ञान का आश्रय लेने से कर्म छूट जाते हैं। दिव्यध्वनि में जैसा आत्मा का सत्स्वरूप आया है वैसे ही अपने श्रेष्ठ केवलज्ञान मयी स्वभाव में रहो तो यह मिथ्यात्व मोहनीय द्रव्यकर्म भी विला जाते हैं। यह कितने बड़े सौभाग्य की बात है कि अपना लक्ष्य निज शुद्धात्मा अनुभव में आ गया, उपलब्ध हो गया, अब अपनी आत्म शक्ति जाग्रत कर अपने में स्थित रहो तो यह सब कर्मासव विला जायेगा, पूर्व बंध विषयादि मल छूट जायेगा। अपने अनंत दर्शन ज्ञान स्वभाव की जय-जयकार मचाओ, यही कर्म बंधन और संसार के जन्म-मरण से छूटने का उपाय है। संसार दशा में जीव-अजीव का बंध है, तब मोक्ष दशा में जीव का अजीव से छूटना होता है। दो प्रकार के भिन्न-भिन्न द्रव्य यदि लोक में नहीं होते तो संसार व मोक्ष का होना संभव नहीं था। यह लोक छह द्रव्यों का समुदाय है, उसमें जीव चेतन है, शेष पांच अचेतन, अजीव हैं । इनमें चार द्रव्य तो बंध रहित शुद्ध दशा में सदा रहते हैं। धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश व काल इनमें सदा स्वभावरूप परिणमन होता है। जीव और पुद्गल में ही विभाव परिणमन की शक्ति है। जीव पुद्गल के बंध में जीव में विभाव होते हैं। जीव के विभाव के निमित्त से पुद्गल में विभाव परिणमन होता है। पुद्गल स्वयं भी स्कंध बनकर विभाव परिणमन करते हैं। हर एक संसारी जीव पुद्गल से गाढ बंधन रूप हो रहा है । तैजस व कार्माण सूक्ष्म शरीर अनादि से सदा ही साथ रहते हैं, इसके अलावा औदारिक, वैक्रियक, आहारक शरीर, भाषा व मन आदि पुद्गलों का संयोग होता रहता है। यह जीव, पुद्गल की संगति में ऐसा एकमेक हो रहा है कि यह अपने को भूल ही गया है। कर्मों के उदय के निमित्त से जो रागादि भावकर्म, शरीरादि नोकर्म होते हैं, उन रूप ही अपने को मानता रहता है । पुद्गल के मोह में उन्मत्त हो रहा है, इसी से कर्म का बंध करके बंधन को बढ़ाता है व कर्मों के उदय से नाना प्रकार के फल भोगता है, सुख रंच मात्र नहीं है, दु:ख ही दु:ख है। 祭茶茶茶茶 ar 婆带帝必章 3-6-3-1-1-1-1-1-HEME
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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