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*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
मिथ्यादृष्टि कहते हैं और जो सम्यक्त्वी होकर पुनः आत्म श्रद्धान से च्युत होकर मिथ्यात्वी होता है तो उस समय मिथ्यात्व की उदय रहित अवस्था में परिणामों की निर्मलता से उस सत्ता स्थित मिथ्यात्व प्रकृति का द्रव्य शक्ति हीन होकर मिथ्यात्व, सम्यक्मथ्यात्व और सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व इन तीन रूप हो जाता है।
जो मिथ्यात्व प्रकृति का उदय आ जाये तो मिथ्यात्वी, अनंतानुबंधी कषाय का उदय हो जाये तो सासादन सम्यक्दृष्टि और मिश्र मोहनीय का उदय हो जाये तो मिश्र सम्यक्त्वी हो जाता है अर्थात् उसके सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के विलक्षण मिश्ररूप परिणाम हो जाते हैं। कदाचित् किसी जीव के सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व का उदय हो जाये तो उसे क्षयोपशम या वेदक सम्यक्त्व कहते हैं, इसकी जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति साधिक ६६ सागर है । यद्यपि क्षयोपशम सम्यक्त्व में सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व के उदय से किंचित् मल दोष लगते हैं तथापि वे मल दोष सम्यक्त्व के घातक न होने से सम्यक्त्व नहीं छूटता। जब जीव के सम्यक्त्व की विरोधनी उपर्युक्त ७ प्रकृतियों की सत्ता का सर्वथा अभाव हो जाता है तब क्षायिक सम्यक्त्व होता है।
मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से पर पदार्थों में आत्म बुद्धि उत्पन्न होती है, इसी को पर्याय बुद्धि कहते हैं अर्थात् कर्मोदय से मिली हुई शरीरादि सामग्री को ही जीव अपना स्वरूप समझने लगता है।
यह मिथ्यात्व भाव भी सब छूट जाने वाला है, उपशम सम्यक्त्व व वेदक सम्यक्त्व में ही इन मिथ्यात्व भावों का आवरण रहता है, जो सातवें और दसवें गुणस्थान तक चलता है, इस आवरण को मत देखो, अपने ज्ञान स्वभाव का आलम्बन रखो, यह सब मिथ्यात्व भाव गल जायेंगे ।
११. अब्रह्म भाव
अबंध सहाव संजुतं, अबंध परिनाम सबल गलियं च ।
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आवरनं न जुत्तं न्यान सहावेन अबंध विलयंति ॥ ४१० ॥ अन्वयार्थ (अबंभ सहाव संजुत्तं) अब्रह्म के भावों में लगे हो, बह रहे हो (अबंभ परिनाम सयल गलियं च ) अब्रह्म के परिणाम सब गलने वाले हैं (आवरनं नहु जुत्तं) इस आवरण में मत जुड़ो (न्यान सहावेन अबंभ विलयंति )
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गाथा ४१० ---*-*
ज्ञान स्वभाव में रहने से सब अब्रह्म भाव विला जाते हैं। विशेषार्थ - ११. अब्रह्म भाव देवी, मनुष्यनी, तिर्यंचनी तीन प्रकार की चेतन स्त्रियों को मन, वचन, काय तीनों योगों करके कृत, कारित, अनुमोदना द्वारा स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण पंचेन्द्रिय के वशीभूत होकर आहार, भय, मैथुन, परिग्रह चार संज्ञाओं युक्त, द्रव्य भाव दो प्रकार से अनंतानुबंधी आदि सोलह कषाय करके सेवन करने से १७२८० भेद रूप दोष चेतन स्त्री संबंधी कुशील के होते हैं।
चित्र या लेप मिट्टी की, काष्ठ की, पाषाण की बनी हुई तीन प्रकार की अचेतन स्त्रियों के मन, काय दो योगों द्वारा कृत, करित, अनुमोदना करके पाँच इन्द्रियों के वशीभूत, चार संज्ञा युक्त, द्रव्य भाव दो प्रकार सेवन करने से ७२० भेद रूप दोष अचेतन स्त्री संबंधी कुशील के होते हैं।
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इस प्रकार चेतन-अचेतन दोनों संबंधी अठारह हजार कुशील के भेद हुए। इन भेदों द्वारा लगते हुए कुशील के दोषों का जैसा जैसा त्याग होता जाता है, वैसे-वैसे ही शीलगुण प्राप्त होते जाते हैं।
ब्रह्मचारी के चेतन-अचेतन सर्वप्रकार की स्त्रियों से उत्पन्न हुए अब्रह्म भाव का त्याग पाक्षिक अवस्था से ही आरंभ हो जाता है तथापि स्त्री सेवन का सर्वथा त्याग न होने से यथार्थ ब्रह्मचर्य नाम नहीं पा सकता। निरतिचार त्याग ब्रह्मचर्य प्रतिमा में होता है। यहां वेद कषाय की इतनी मंदता हो जाती है कि जिससे काम वेदना संबंधी मूर्च्छा उत्पन्न ही नहीं होती। इसी मंदता के क्रमशः बढ़ते-बढ़ते नवमे गुणस्थान में वेद कषाय का सर्वथा अभाव हो जाता है जिससे आत्मा वेद कषाय जनित कुशील की मलिनता से रहित हो जाती है।
बाह्य व्यवहार ब्रह्मचर्य तो स्त्री विषय का त्याग और अंतरंग ( निश्चय) ब्रह्मचर्य अपने आत्म स्वरूप में उपयोग को स्थिर करना है। यह आवरण को मत देखो, अपने ज्ञान स्वभाव में रहो तो यह सब अब्रह्म भाव विला जायेंगे ।
जैसे नदी में पानी बहता जाता है, उसमें क्या बहता है, कैसा बहता है ? किनारे खड़े व्यक्ति को निर्विकारी ज्ञायक रहना चाहिये तभी वह बुद्धिमान है। ऐसे ही साधक को कमों के बहते प्रवाह में निर्विकारी न्यारे ज्ञायक रहना चाहिये तभी वह ज्ञानी है। यह कर्मोदय जन्य प्रवाह तो अपनी स्थिति तक चलेगा ।
इस प्रकार आगम और अनुभव से प्रमाण करके जिसने वस्तु स्वरूप
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