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________________ -*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी आदि तथा पापी दुष्ट पुरुषों के संयोग होने से संक्लेश रूप परिणाम होना । ३. पीड़ा चिंतवन- रोग के प्रकोप की पीड़ा से संक्लेश रूप परिणाम होना व रोग के अभाव का चिन्तवन करना । ४. निदान बंध- आगामी काल में विषय भोगों की वांछा रूप संक्लेश परिणाम होना । यह आर्तध्यान संसार की परिपाटी से उत्पन्न और संसार के मूल कारण हैं, मुख्यतया तिर्यंच गति को ले जाने वाले हैं। पांचवें गुणस्थान तक चारों और छठे गुणस्थान में निदान बंध को छोड़कर शेष तीन आर्तध्यान होते हैं परंतु सम्यक्त्व अवस्था में मंद होने से तिर्यंच गति के कारण नहीं होते। साधक को अपनी पात्रता, भूमिका, परिस्थिति का ध्यान रखते हुए अपना पुरुषार्थ करना चाहिये । सिद्धांत को सामने रखने से फिर कोई भय भ्रम नहीं होता । यह आर्तध्यान के परिणाम सब छूट जाने वाले हैं। छठे गुणस्थान के आगे तो होते ही नहीं हैं। यह आवरण को मत देखो, ज्ञान का आलंबन रखो, यह सब कर्म क्षय हो जायेंगे। ९. रौद्रध्यान भाव रौद्रं सहाव जुतं रौद्रं सहकार नन्त विरयंति । . आवरनं नहु दिट्ठ, दंसन दिट्ठी च कम्म विलयंति ॥ ४०८ ॥ अन्वयार्थ (रौद्रं सहाव जुत्तं) रौद्रध्यान के भावों में लगे हो (रौद्रं सहकार नन्त विरयंति) यह रौद्रध्यान के सब परिणाम छूट जाने वाले हैं (आवरनं नहु दिट्टं) यह आवरण को मत देखो (दंसन दिट्ठी च कम्म विलयंति) दर्शन दृष्टि रखो तो यह रौद्रध्यान और कर्म क्षय हो जायेंगे । विशेषार्थ ९ रौद्रध्यान भाव क्रूर, निर्दय, परिणामों का दुष्ट - - - होना रौद्रध्यान है। यह चार प्रकार का है १. हिंसानंद जीवों को अपने तथा पर के द्वारा बध पीड़ित ध्वंस घात होते हुए हर्ष मानना, पीड़ित करने कराने का चिंतवन करना । २. मृषानंद - आप असत्य झूठी कल्पनायें करके तथा दूसरों के द्वारा - गाथा ४०८, ४०९ ******* ऐसा होते हुए देखकर, जानकर आनंद मानना व असत्य भाषण करने कराने का चिंतवन करना । ३. चौर्यानंद चोरी करने कराने का चिंतवन तथा दूसरों के द्वारा इन कार्यों के होते हुए आनंद मानना । - ४. परिग्रहानंद क्रूर चित्त होकर बहुत आरंभ, बहुत परिग्रह रूप संकल्प व चिंतवन करना तथा अपने और पराये परिग्रह के बढ़ने बढ़ाने में आनंद मानना । यह रौद्रध्यान नरक ले जाने वाले हैं। पंचम गुणस्थान तक होते हैं, परंतु सम्यक्त्व अवस्था में मंद होने से नरक गति के कारण नहीं होते । छठे गुणस्थान से तो रौद्रध्यान होते ही नहीं हैं। यह सब रौद्रध्यान के परिणाम विला जाने वाले हैं। आवरण को मत देखो, अपने ममल स्वभाव की दृष्टि रखो। अपने ध्रुवतत्त्व शुद्धात्मा को देखो, पात्रता बढ़ाओ यह सब रौद्रध्यान और कर्म भी क्षय हो जाने वाले हैं। शुद्धात्मा का अनुभव होने के पश्चात् पांचवें और छठे गुणस्थान में उस-उस प्रकार के भाव आये बिना नहीं रहते। वे रागादि भाव बंध के कारण हैं और हेय हैं, ज्ञानी ऐसा जानते हैं। साधक को क्षण में शुभ और क्षण में अशुभ भाव हुआ ही करते हैं यह कोई विशेष बात नहीं है। धर्मी को ज्ञानधारा और कर्मधारा प्रतिक्षण चला करती है। ज्ञानधारा का चलना यही विशेष बात है, इस ज्ञानधारा से ही संसार भ्रमण से छुटकारा मिलता है। १०. मिथ्यात्व भाव मिथ्यात सहिय सहकारं, मिथ्या परिनाम सयल विरयति । आवरनं न विडं न्यानं अन्मोय मिथ्य गलियं च ।। ४०९ ।। • अन्वयार्थ - (मिथ्यात सहिय सहकारं) मिथ्यात्व भाव सहित हो रहे हो, उसी का सहकार चल रहा है (मिथ्या परिनाम सयल विरयंति) मिथ्यात्व के सब भाव छूट जाने वाले हैं (आवरनं नहु दिट्ठ) आवरण को मत देखो (न्यानं अन्मोय मिथ्य गलियं च ) ज्ञान का आलम्बन रखो, अपने में स्वस्थ दृढ़ रहो, यह सब मिथ्या भाव गल जायेंगे । विशेषार्थ - १०. मिथ्यात्व भाव जिस जीव को अनादिकाल से २३३ कभी सम्यक्त्व अर्थात् आत्म स्वरूप का श्रद्धान नहीं हुआ, उसे अनादि -
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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