SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 9
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्यात्म प्रबोध श्री गुरु तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज की आत्मानुभूति पूर्ण साधना चौदह ग्रंथों में श्री गरु महाराज ने स्वयं ही स्पष्ट कर हम सभी जीवों पर महान उपकार किया है। मनुष्य भव आत्म कल्याण करने के लिए मिला है, इसमें पुरुषार्थ पूर्वक अपने कल्याण का मार्ग बनाने में ही इस जीवन की सार्थकता है। अपने शुद्धात्म स्वरूप का श्रद्धान ज्ञान चारित्र यही मोक्षमार्ग है, इसी मार्ग पर चलकर अनन्त जीव सिद्ध सिद्धालय को प्राप्त हो रहे हैं, हुए हैं और भविष्य में होंगे। रत्नत्रय की एकता ही शाश्वत अनाद्यनिधन मोक्षमार्ग है, सम्यक्दृष्टि ज्ञानी आत्मार्थी साधक इसी मार्ग पर चलकर मुक्ति को प्राप्त करता है जबकि अज्ञानी जीव अपने स्वरूप से अपरिचित रहता है और नाना प्रकार से कर्मों का आस्रव बन्ध करके संसार परम्परा को बढ़ाता है। श्री गुरुदेव तारण स्वामी ने उपदेश शुद्ध सार जी ग्रंथ में लिखा है कि अन्यान भाव सहियं, कम्मं उववन्न नन्त नन्ताइ । अनेय काल भ्रमनं, न्यान सहाव कम्म षिपनं च ।। अन्यानं पज्जावं, सहियं उववन्न कम्म विविहं च । न्यान सहावं दिहुँ, कम्म गलियं च अंतर्मुहूर्तस्य । (गाथा ५७९-५८०) अज्ञान भाव सहित होने पर अर्थात् मोह,राग-द्वेष आदि भावों में जुड़ने पर अनन्तानन्त कर्म उत्पन्न होते हैं अर्थात् आम्रव पूर्वक कर्म बंधते हैं,जिनके कारण अनेक काल तक जीव संसार में परिभ्रमण करता है, ज्ञान स्वभाव में रहने से कर्म क्षय होते हैं। अज्ञान भाव के कारण पर्याय में युक्त होने से विविध प्रकार के कर्मों का आस्रव बंध होता है। ज्ञान स्वभाव की दृष्टि और अपने स्वभाव में लीन रहने पर अन्तर्मुहूर्त में संपूर्ण कर्म गल जाते हैं, निर्जरित क्षय हो जाते हैं। अज्ञान भाव से कर्मों का आस्रव और ज्ञान भाव से कर्मों से मुक्ति होती है। यही सिद्धान्त श्री त्रिभंगीसार जी ग्रंथ की प्रस्तुत अध्यात्म प्रबोध टीका में पूज्य श्री स्वामी ज्ञानानन्द जी महाराज ने अपनी भाषा में स्पष्ट किया है। श्री संघ का उद्देश्य नि:स्वार्थ भाव से आत्म साधना करना एवं धर्म प्रभावना करना है इसमें किसी से कोई स्वार्थ पूर्ण सम्बन्ध नहीं हैं। इन टीका ग्रंथों के माध्यम से संपूर्ण भारत वर्ष में गुरुवाणी प्रचार-प्रसार की महत्वपूर्ण भूमिका बनी है। इसका स्वाध्याय कर सभी भव्य जीव आस्रव भाव से छूटकर मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करें इसी मंगल भावना सहित - ज्ञानमयभाव:मोक्षमार्ग जो योगन की चपलाई, तातें है आसव भाई। आसव दुखकार घनेरे, बुधिवन्त तिन्हें निवेरे॥ अनादिकाल से जीव अपने अज्ञान मोह रागादि विकारी परिणामों के कारण नाना प्रकारसेकों का बंधकरके संसारमें भटक रहा है, जन्म -मरण के दुःख भोग रहा है। इन दुःखों से छूटने का एकमात्र उपाय है अपने आत्मस्वरूपके अनुभव प्रमाण बोधकोजाग्रत करना अर्थात्सम्यकदर्शन को अंतर में ही प्रगटाना। सम्यक्दर्शन होने परजीव का संसार से मुक्त होने का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। जिस प्रकार सूर्य का उदय होने पर रात्रि विलीयमान होजाती है, इसीप्रकारसम्यक्त्वरविकेउदितहोतेही मिथ्यात्व, अज्ञान अंधकारविलय अर्थात क्षय हो जाता है। अपने आत्मस्वरूपका बोध न होने के कारण जीवविकारी भावों में उलझकर कर्मासव बंध कर रहा है। अज्ञान दशा में उदयागत कर्म के निमित से जीव अनेक कर्म परमाणुओं का आगामी समय के लिए बंध कर लेता है, जबकि कर्मों का स्वभाव ही क्षय होने का है; किन्तु अज्ञानी जीव आत्म बोध से रहित होता है इसलिए उसे संवर पूर्वक निर्जरा नहीं होती। इसके विपरीत सम्यक्ढुष्टि ज्ञानी साधक को स्व-पर का बोध जागत हो गया है, वह उदयागत कों का मात्र ज्ञाता होता है.कर्ता नहीं। जिस प्रकार पका हुआ फल एक बार डंठल से गिर जाने के बाद पुन: उसके संबंध को प्राप्त नहीं होता, इसीप्रकारकर्मोदय से उत्पन्न होनेवाला भाव, जीवभाव से एक बारअलग होने पर फिरजीवभाव को प्राप्त नहीं होता। इस प्रकार रागादिकेसाथ न मिला हुआज्ञानमयभावसम्यकद्रष्टिज्ञानीको उत्पन्न होता है, यहीसंवररूपमोक्षमार्ग है। श्रीगुरुतारण तरण मण्डलाचार्यजी महाराज ने श्री त्रिभंगीसारजी गंथ में जिस विधि विधान से आसव और संवर के कारणभूत भावों का विवेचन किया है, वह ऐसा प्रतीत होता है कि श्री मुरुमहाराज ने आसव और संवररूप अन्तर के सारे रहस्यों को प्रत्यक्ष स्पष्ट कर दिया है। श्रीगुरु महाराज के द्वारा बताये गये ज्ञानमार्ग के पथ पर सतत् अमणी अध्यात्म शिरोमणि पूज्य श्रीस्वामीज्ञानानन्दजीमहाराज ने इसगंथ कीअध्यात्म प्रबोध टीका करके सभी भव्य जीवों पर महान उपकार किया है। सभी साधकजन एवं आत्मा जिज्ञासुसमस्तभव्यजीव इसगंथकास्वाध्याय चिन्तन-मनन कर अपने आत्मकल्याणकापथ प्रशस्तकरसकते हैं, पूज्य श्रीनेऐसीअध्यात्मतरंगहमें प्रदान की है। सभीभव्यजीव अज्ञान तिमिरसे मुक्तहों एवं सम्यकज्ञानसूर्यका प्रकाशसभी के अन्तर में प्रकाशित होयहीशुभ भावना है। बीना दीपावली पर्व दिनांक-२७.१०.२००० ब्र. उषा जैन संयोजिका तारण तरण श्री संघ दीपावली पर्व दिनांक-२७.१०.२००० ब. शान्तानन्द चोपड़ा (महाराष्ट्र)
SR No.009723
Book TitleTribhangi Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherTaran Taran Sangh Bhopal
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy