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१.
श्री त्रिभंगीसार जी
जयमाल आम्रव बंध तत्व का होना, अपना स्वयं विभाव है। संवर-निर्जर तत्व का होना, अपना शुद्ध स्वभाव है। सम्यग्दर्शन ज्ञान चरण ही, तीन लोक में सार है। पाप विषय कषाय से हटना, यही त्रिभंगीसार है।
* तत्व मंगल *
देवको नमस्कार तत्वं च नंद आनंद मउ, चेयन नंद सहाउ । परम तत्व पद विंद पउ, नमियो सिद्ध सुभाउ ।
गुरुको नमस्कार गुरु उवएसिउ गुपित रुइ, गुपित न्यान सहकार । तारन तरन समर्थ मुनि, गुरु संसार निवार ।
धर्म को नमस्कार धम्मु जु उत्तउ जिनवरहिं, अर्थति अर्थह जोउ । भय विनास भवु जु मुनहु ,ममल न्यान परलोउ । देवको, गुरुको, धर्म को नमस्कारहो।
मंगलाचरण मैं ध्रुवतत्व शुद्धातम हूँ, मैं ध्रुव तत्व शुद्धातम हूँ॥ मैं अशरीरी अविकारी हूँ, मैं अनंत चतुष्टयधारी हूँ। मैं सहजानंद बिहारी हूँ, मैं शिवसत्ता अधिकारी हूँ । मैं परम ब्रह्म परमातम है, मैं ध्रुव तत्व शुद्धातम हूँ ...
आस्रव बंध का रुकना ही तो, मोक्षमार्ग कहलाता है। सम्यग्दर्शन होने पर ही, निज स्वभाव दिखलाता है। ज्ञानी सम्यक् दृष्टि को ही, सब संसार असार है। पाप विषय कषाय से हटना, यही त्रिभंगीसार है।
३. मोह अज्ञान के कारण प्राणी, काल अनादि भटक रहा।
भाव शुभाशुभ कर करके ही, चारों गति में लटक रहा। अपना शुद्ध स्वभाव न जाना, भटक रहा संसार है। पाप विषय कषाय से हटना, यही त्रिभंगीसार है।
४. शुभ भावों से पुण्य बंध हो, अशुभ भाव से पाप हो।
भाव कर्म से द्रव्य कर्म हो, द्रव्य कर्म से भाव हो । इसमें ही तो फँसा अज्ञानी, करता हा-हाकार है। पाप विषय कषाय से हटना. यही त्रिभंगीसार है॥
मैं ज्ञेय मात्र से भिन्न सदा, मैं ज्ञायक ज्ञान स्वभावी हूँ। मैं अलख निरंजन परम तत्व, मैं ममलह ममल स्वभावी हूँ। मैं परम तत्व परमातम हूँ, मैं ध्रुव तत्व शुद्धातम हूँ...
भेदज्ञान तत्व निर्णय द्वारा, जिसने निज को जान लिया। भाव शुभाशुभ छोड़कर उसने, शुद्धभाव रस पान किया।। निज सत्ता शक्ति को देखा, मचती जय जयकार है। पाप विषय कषाय से हटना. यही त्रिभंगीसार है।
मैं निरावरण चैतन्य ज्योति, मैं शाश्वत सिद्ध स्वरूपी हूँ। मैं एक अखण्ड अभेद शुद्ध, मैं केवलज्ञान अरूपी हूँ ॥ मैं ज्ञानानंद सिद्धातम है, मैं ध्रुव तत्व शुद्धातम हूँ...
एक सौ आठ भाव आस्रव जो, कर्म बंध के कारण हैं। इनसे ही बच करके रहना, समझाते गुरु तारण हैं।