________________
१०६
श्री त्रिभंगीसार जी द्वेष-मोह उत्पन्न नहीं होते, ७. पुन: कर्म का आस्रव नहीं होता, ८. पुन: कर्म नहीं बंधता,९. पूर्वबद्ध कर्म भोगा जाने पर निर्जरित हो जाता है, १०. समस्त कर्मों का अभाव होने से साक्षात् मोक्ष होता है, ज्ञान स्वरूप आत्मा के आलम्बन की ऐसी महिमा है।
ज्ञानी को यथार्थ द्रव्य दृष्टि प्रगट हुई है। वह द्रव्य स्वभाव के आलम्बन द्वारा अन्तर स्वरूप स्थिरता में वृद्धि करता जाता है; परन्तु जब तक अपूर्ण दशा है, पुरुषार्थ मन्द है, पूर्णरूप से शुद्ध स्वरूप में स्थिर नहीं हो सकता तब तक वह शुभ परिणाम में संयुक्त होता है किन्तु वह उन्हें आदरणीय नहीं मानता है, उनकी स्वभाव में नास्ति है; अतएव दृष्टि उनका निषेध करती है। ज्ञानी पुरुष को जो ज्ञान भाव वर्तता है, वह निज स्वभाव में स्थिति का होता है इसी से कर्मास्रव का निरोध होता है।
ज्ञानी होना ही संसार के दु:खों से छूटना और मुक्ति प्राप्त करने का उपाय है, अज्ञान दशा में ही अनादि से चार गति चौरासी लाख योनियों का भव भ्रमण किया है। यह अवसर सम्यक्ज्ञान पूर्वक कर्मों की निर्जरा कर मुक्ति को प्राप्त करने के लिये मिला है।
१.स्वस्वरूप-मूल, अन्या, वेदक :वीन भाव १०. उपसम, म्याइक, सुध: वीन भाव
गाथा-५७ स्वस्वरूपं सुद्ध दर्वार्थ, अन्या वेदक उवसमं ।
व्याइकं सुख धुवं चिंते, कर्मादि मल मुक्तयं ॥ अन्वयार्थ-(स्वस्वरूपं सुद्ध दर्वार्थं ) अपना स्वरूप शुद्ध द्रव्य, सिद्ध के समान शुद्ध परमात्म स्वरूप है ऐसा अनुभूति में आना मूल सम्यक्त्व है (अन्या वेदक उवसमं ) यही आज्ञा वेदक उपशम सम्यक्त्व है (ष्याइकं सुद्ध धुवं चिंते) ध्रुव स्वभाव का दृढ श्रद्धान क्षायिक सम्यक्त्व
और शुद्ध सम्यक्त्व है ऐसा चिन्तन करने से (कर्मादि मल मुक्तयं ) कर्मादि मल से मुक्त हो जाता है। विशेषार्थ- सम्यग्दर्शन आत्मा का एक ऐसा गुण है जो केवल अनुभव गम्य है। स्वानुभूति के साथ इसका अविनाभावी सम्बन्ध है। अपने आत्मा के अतीन्द्रिय आनन्द का स्वाद बिना सम्यक्त्व के नहीं आ सकता।
सम्यग्दर्शन के अन्तरंग कारण- निकट भव्यता, सम्यक्त्व के प्रतिबन्धक मिथ्यात्व आदि कर्मों का यथायोग्य उपशम, क्षय, क्षयोपशम, उपदेश आदि को ग्रहण कर सकने की
१०७
गाथा-५७ योग्यता, संज्ञित्व और परिणामों की शुद्धता। सम्यग्दर्शन का बहिरंग कारण- सद्गुरूओं का उपदेश आदि।
सबसे प्रथम सम्यग्दर्शन प्रगट होता है- जब काल लब्धि आदि के योग से भव्यत्व शक्ति की प्रगटता होती है, तब यह जीव सहज शुद्ध पारिणामिक भाव रूप निज परमात्म द्रव्य के सम्यक्श्रद्धान, सम्यक्ज्ञान और सम्यक् अनुचरण रूप पर्याय से परिणत होता है। इस परिणमन को आगम की भाषा में औपशमिक भाव या क्षायोपशमिक भाव या क्षायिक भाव कहते हैं।
भव्य जीव क्षयोपशम लब्धि, विशुद्धि लब्धि, देशना लब्धि और प्रायोग्य लब्धि को प्राप्त करके तीन करण द्वारा करण लब्धि करता है। करण लब्धि होने पर सम्यक्त्व नियम से होता है।
कर्मों से बद्ध भव्य जीव अर्धपुद्गल परावर्तन प्रमाण काल शेष रहने पर प्रथम सम्यक्त्व के योग्य होता है क्योंकि एक बार सम्यक्त्व होने पर जीव इससे अधिक समय तक संसार में नहीं रहता, इसे ही काल लब्धि कहते हैं।
भेदज्ञान द्वारा शरीरादि से भिन्न अपने आत्मस्वरूप की अनुभूति युत यथार्थ प्रतीति होना सम्यग्दर्शन है। यहाँ सम्यक्त्व के छह भेद रूप भाव कहे गये हैं :
१. मूल सम्यक्त्व- चारों गतियों में से किसी भी गति वाला भव्य, संज्ञी, पर्याप्तक, मन्दकषायी, ज्ञानोपयोगयुक्त, जागता हुआ, शुभ लेश्या वाला तथा करण लब्धि से सम्पन्न जीव सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। निज शुद्धात्मानुभूति होना मूल सम्यक्त्व है।
जिस जीव में मोक्ष प्राप्ति की योग्यता है उसे भव्य कहते हैं और सम्यक्त्व ग्रहण करने की योग्यता को लब्धि कहते हैं।
२. आज्ञा सम्यक्त्व-जिनवाणी की आज्ञानुसार आत्मा व अनात्मा के तत्वों का निश्चय होना तथा दर्शन मोह के उपशम में जिन वचन पर श्रद्धान होना आज्ञा सम्यक्त्व है।
३. वेदक सम्यक्त्व- सम्यकदर्शन का एकदेश घात करने वाली देशघाती सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से तथा उदय प्राप्त मिथ्यात्व आदि छह प्रकृतियों के उदय की निवृत्ति होने पर
और आगामी काल में उदय होने वाली उन्हीं छह प्रकृतियों का सदवस्था रूप उपशम होने पर वेदक अर्थात् क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है। इस सम्यक्त्व में चल, मलिन और अगादपना होता है। १. उपशम सम्यक्त्व-आत्मा, परमात्मा का भेद विचारते हुए परिणाम ऐसे निर्मल हो जाते