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श्री त्रिभंगीसार जी
८. रिजु विपुल, मनपर्जय, केवल स्वरूप : तीन भाव गाथा - ५५-५६
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मति श्रुत अवधिं चिंते, रिजु विपुलं च जानु स्तितं । स्वात्म दर्सनं न्यानं, सुचरनं मन पर्जयं ॥ चत्रु न्यानं च एकत्वं केवलं पदमं धुवं । अनन्तानन्त दिस्टंते, सुद्धं संमिक् दर्सनं ॥ अन्वयार्थ - (मति श्रुत अवधिं चिंते ) ऊपर कहे प्रमाण अध्यात्म दृष्टि से मति, श्रुत व अवधिज्ञान का चिन्तन करते हुए (रिजु विपुलं च जानु स्तितं ) साधक रिजुमति और विपुल मति में स्थित भावना भाता है (स्वात्म दर्सनं न्यानं ) जब अपने ही आत्मा का सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान हो (सुचरनं मन पर्जयं ) सम्यक्चारित्र हो, ऐसा स्वात्मानुभव हो, वहीं मन: पर्यय ज्ञान है।
( चत्रु न्यानं च एकत्वं ) चार ज्ञान तक एक साथ होते हैं (केवलं पदमं धुवं) केवलज्ञान एक ही होता है जो परम ध्रुव स्वभाव है (अनन्तानन्त दिस्टंते) केवलज्ञान में अनन्तानन्त पदार्थ, लोकालोक झलकता है (सुद्धं संमिदर्सनं ) तब ही शुद्ध प्रत्यक्ष परमावगाढ़ सम्यक्दर्शन होता है, जो आत्मा का स्वरूप है ।
विशेषार्थ - आत्मा, स्वभाव से ऋजु है, सरल है, शांत-सहज स्वभावी विशाल गम्भीर है । अनन्तानन्त ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सुखादि गुणों का धारी है । जहाँ रत्नत्रय की एकता रूप निर्विकल्प ध्यान होता है, वह वचन अगोचर, स्वसंवेदन प्रत्यक्ष एकऐसा मोक्ष साधक भाव है जो केवलज्ञान का साधक है । जिसमें मति, श्रुत, अवधि, मन: पर्यय ज्ञान समा गये हैं, ऐसा ज्ञान आसव का निरोधक है। स्वानुभव से प्राप्त केवलज्ञान भी आम्रव निरोधक है क्योंकि वहाँ सभी विश्व को जानते हुए भी वीतरागता है । केवलज्ञान के होने पर सम्यग्दर्शन शुद्ध व परमावगाढ़ हो जाता है।
मन: पर्यय ज्ञान - जो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, की मर्यादा सहित इन्द्रिय अथवा मन की सहायता के बिना ही दूसरे पुरुष के मन में स्थित रूपी पदार्थों को प्रत्यक्ष जानता है उसे मन: पर्यय ज्ञान कहते हैं । यह ऋजुमति और विपुलमति के भेद से दो प्रकार का है। ऋजुमति- मन में चिंतित पदार्थ को जानता है, अचिन्तित पदार्थ को नहीं और वह भी सरल रूप से चिंतित पदार्थ को जानता है।
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गाथा - ५५, ५६
विपुलमति - चिंतित और अचिंतित पदार्थ को तथा वक्र चिंतित और अवक्र चिंतित पदार्थ को भी जानता है ।
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मन: पर्यय ज्ञान विशिष्ट संयमधारी को होता है। विपुल का अर्थ विस्तीर्ण विशाल गंभीर होता है ।
केवलज्ञान - समस्त द्रव्य और उनकी सभी पर्यायों को अक्रम से एक ही काल में जानता है । केवलज्ञान में ऐसी शक्ति है कि अनन्तानन्त लोक अलोक हों तो भी उन्हें जानने में केवलज्ञान समर्थ है।
एक जीव को एक साथ एक से लेकर चार ज्ञान तक हो सकते हैं। यदि एक ज्ञान हो तो केवलज्ञान होता है, दो हों तो मति और श्रुतज्ञान होते हैं, तीन हों तो मति श्रुत और अवधि अथवा मन: पर्यय ज्ञान होते हैं, चार हों तो मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय ज्ञान होते हैं। एक ही साथ पाँच ज्ञान किसी को नहीं होते और एक ही ज्ञान एक समय में उपयोग रूप होता है । केवलज्ञान के प्रगट होने पर वह सदा के लिए बना रहता है, दूसरे ज्ञानों का उपयोग अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त होता है, उससे अधिक नहीं होता, उसके बाद ज्ञान के उपयोग का विषय बदल ही जाता है । केवली के अतिरिक्त सभी संसारी जीवों के कम से कम दो अर्थात् मति और श्रुतज्ञान अवश्य होते हैं । क्षायोपशमिक ज्ञान क्रमवर्ती है। एक काल में एक ही प्रवर्तित होता है किन्तु यहाँ जो चार ज्ञान एक ही साथ कहें हैं सो चार का विकास एक ही समय में होने से चार ज्ञानों की जानने रूप लब्धि एक काल में होती है यही कहने का तात्पर्य है । उपयोग तो एक काल में एक ही स्वरूप होता है। आत्मा वास्तव में परमार्थ है और वह ज्ञान है। आत्मा स्वयं एक ही पदार्थ है इसलिए ज्ञान भी एक ही पद है। यह ज्ञान नामक एक पद, परमार्थ स्वरूप साक्षात् मोक्ष का उपाय है। इन सूत्रों में ज्ञान के जो भेद कहे हैं वे इस एक पद का अभिनन्दन करते हैं, शुद्धात्मा की महिमा को प्रशस्त करते हैं। ज्ञान के हीनाधिक रूप भेद उसके सामान्य ज्ञान स्वभाव को नहीं भेदते किन्तु अभिनन्दन करते हैं; इसलिए जिसमें समस्त भेदों का अभाव है ऐसे आत्मस्वभाव भूत ज्ञान का ही आलम्बन करना चाहिए अर्थात् ज्ञान स्वरूप आत्मा का ही आलम्बन करना चाहिए, ज्ञानस्वरूप आत्मा के अवलम्बन से ही निम्न प्रकार की प्राप्तियाँ होती हैं
१. निज पद की प्राप्ति होती है, २. भ्रांति का नाश होता है, ३. आत्मा का लाभ होता है, ४. आत्मा का परिहार सिद्ध होता है, ५. भावकर्म बलवान नहीं हो सकता, ६. राग