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________________ श्री त्रिभंगीसार जी हैं कि उसके प्रताप से अनन्तानुबंधी कषाय और मिथ्यात्व की प्रकृतियों का एक समय के लिए उपशम हो जाता है तब उपशम सम्यक्त्व उत्पन्न होता है। ५. क्षायिक सम्यक्त्व-क्षायिक सम्यक्त्व प्रगट होकर पुन: लुप्त नहीं होता सदा रहता है क्योंकि उसके प्रतिबन्धक मिथ्यात्व आदि कर्मों का क्षय हो जाता है। इसी से शंका आदि दोष नहीं होने से वह औपशमिक सम्यग्दर्शन से अतिशुद्ध होता है। कभी भी, किसी कारण से उसमें क्षोभ पैदा नहीं होता । भयंकर रूप से, हेतु और दृष्टान्त पूर्वक वचन विन्यास से क्षायिक सम्यक्त्व कभी डगमगाता नहीं है, निश्चल रहता है । अनुभूति युत दृढ श्रद्धान को क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं। ६. शुद्ध सम्यक्त्व-निज शुद्धात्मानुभूति की निश्चय प्रतीति शुद्ध सम्यक्त्व है । जो सम्यग्दर्शन को अच्छी तरह से सिद्ध कर चुके हैं, उन्हें ही शुद्ध सम्यक्त्व होता है। उनकी विपत्ति भी सम्पत्ति हो जाती है। इसी के प्रसाद से मुक्ति की प्राप्ति होती है। सम्यग्दर्शन कारण है, सम्यक्ज्ञान कार्य है। ___ अधिक कहने से क्या ? अतीत में जो नरश्रेष्ठ मुक्त हुए हैं और भविष्य में जो मुक्त होंगे, वह सब सम्यक्त्व का ही माहात्म्य जानो। सम्यक्त्व रूपी रत्न, मुक्ति रूपी लक्ष्मी को आकृष्ट करने वाला है क्योंकि सम्यकदृष्टि ही मुक्ति लक्ष्मी का वरण करता है। शुद्ध आत्म द्रव्य में विश्रान्ति ही परमार्थ से सिद्ध भक्ति है उसी से निर्वाण पद प्राप्त होता है। तत्वों को भले प्रकार से जानने वाला व अपने आत्मा के यथार्थ स्वरूप का श्रद्धान करने वाला सम्यक्दृष्टि जीव इन्द्रियों के भोगों से प्राप्त सुख में व इन्द्रियजन्य ज्ञान में राग-द्वेष नहीं करता, समभाव रखता है, अतीन्द्रिय ज्ञान व अतीन्द्रिय आनन्द का प्रेमी हो जाता है। सम्बग्दर्शन के होने पर ही अपने आत्मा का अनुभव रूप विशेष आत्मज्ञान होता है । सम्यक्त्व के होने पर ही आत्मानुभूति होती है। सम्यकदृष्टि को यह श्रद्धा रहती है कि सम्यग्दर्शन ही सच्चा धर्म है या शुद्धात्मा का अनुभव सच्चा धर्म है । उस धर्म का फल घातिया कर्मों के नाश से होने वाला क्षायिक अतीन्द्रिय अनन्त सुख का लाभ है । ज्ञानी जानता है कि देहादि रूप मैं नहीं हूँ यही ज्ञान मोक्ष का बीज है। १०८ १०९ गाथा-५८,५९,६० जब अंतरंग में ज्ञान और रागादि का भेद करने का तीव्र अभ्यास करने से भेदज्ञान प्रगट होता है तब यह ज्ञान होता है कि बान का स्वभाव तो मात्र जानने का ही है, ज्ञान में जो रागादि की कलुषता संकल्पविकल्प भासित होते हैं वे सब पुद्गल विकार हैं। मोह रूप संकल्प तथा राग-द्वेष रूप विकल्प यह सब जीव के अज्ञान भाव हैं। यह जीव अपनी इस भूल के कारण ही कर्म बन्ध करता है यदि वह अपने स्वरूप का सही बोध कर ले और किसी भी पदार्थ में राग-द्वेष की भावना न करे तो , अज्ञान चेतना रहित ज्ञान चेतना सहित वह ज्ञानी है । उस समय उसकी यह परिणति ज्ञानमय परिणति है इस ज्ञानमय परिणति के होने पर जीव दोनों प्रकार के आस्रव अभाव कर निराम्रवदशा को प्राप्त करता है। ११. पदस्थ , पिण्डस्थ, रूपस्थ : तीन भाव १२. रूपातीत, अन्या, अपाय: तीन भाव १३.विपाक,संस्थान, शुक्लध्यान: तीन भाव गाथा-५८,५९,६० पदस्थं सुद्ध पदं सार्थ, सुद्ध तत्व प्रकासकं । पिण्डस्थ न्यान पिण्डस्थ, स्वात्म चिंता सदा बुध। रूपस्थं सर्व चिद्रूपं, रूपातीतं विक्त रूपयं । स्व स्वरूपं च आराध्य, धर्म चक्र न्यान रूपयं । धर्म ध्यानं च संजुक्तं, औकास दान समर्थयं । अन्या पाय विचय धर्म, सुक्ल ध्यानं स्वात्म दर्सनं। अन्वयार्थ-(पदस्थं सुद्ध पदं साधं)शुद्ध पद अर्थात् सिद्ध पद का श्रद्धान और साधना ही पदस्थ ध्यान है (सुद्ध तत्व प्रकासकं) इससे शुद्ध तत्व अर्थात् शुद्धात्मा का प्रकाश होता है (पिण्डस्थ न्यान पिण्डस्थ) मैं ज्ञान का पिण्ड अपने ज्ञान स्वभाव में स्थित हूँ यह पिण्डस्थ ध्यान है (स्वात्म चिंता सदा बुधै) ज्ञानीजन हमेशा ऐसे अपने आत्मस्वरूप का चिन्तन करते हैं। (रूपस्थं सर्व चिद्रूपं) अपना स्वरूप सर्व चैतन्यमयी चिद्रूप है, ऐसा ध्यान
SR No.009723
Book TitleTribhangi Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherTaran Taran Sangh Bhopal
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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